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चतुर्थस्तु तिनिर्णयः ।
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वंदा वास्ते नही करा है ॥ ८६ ॥ इसवास्ते पूर्वाचा योंके मार्गमें चलनेसें जलें मार्गसें कदापि पुरुष चष्ट नही होता है, परंतु पूर्वाचार्योंके चलेदूए मार्गमें चलने से अनेक मिथ्या विकल्पोंसे लूटके पुरुष जाव शुद्धिकों प्राप्त होता है इस वास्ते पूर्वाचार्योंका च लाया शासनदेवतायोंका कायोत्सर्ग नित्य चैत्यवंद नामें करना ॥ ८७ ॥ पारिय काजरसग्गो, परमेठीणं च' कयनमोक्कारो ॥ वेयावच्चगराणं, देवथुइ जरकपमु हाणं ॥ ८८ ॥ व्याख्याः - कायोत्सर्ग पारकें, परमे ठों नमस्कार करके, वैयावृत्तके करनेवाले शासन देवतायोंकी थुइ कहे ॥ ८८ ॥
सा प्रगट नाष्यका पाठ देखके जो कोई चोथी थुइका निषेध करे तिस्कों जैनमतकी श्रद्धा रहित के सिवाय अन्य कौनसे शब्द करके बुलाना ?
जैसे जैसे बडे बडे महान शास्त्रोंके प्रगट पाठ है तोजी रत्नविजयजी अरु धनविजयजीकों देखने में नही आते है सो कर्मी विषमगतिही हेतु है ब दूसरा क्या कहनां ? ॥
तथा चौरासी हजार श्लोक प्रमाण स्याद्वाद रत्ना कर ग्रंथका कर्त्ता सुविहित देवसूरिजी की करी यति
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