Book Title: Bhavanjali
Author(s): Amarmuni
Publisher: Veerayatan

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Page 15
________________ [ ६ ] दिल की चाह ? वीर जिनेश्वर आपका सच्चा भगत बन जाऊँ मैं । पाप भरी जग - वासना दिल से समस्त हटाऊँ में ॥ घ्र.. शान्त हृदय में द्वेष की, धधके न कभी चिगगारियाँ | शत्रुजनों पै भी सदा, प्रेम की गंगा बहाऊँ मैं ||१ दीन दुःखी को देख कर आँसू बहाऊँ, रो उठू । जैसे बने सर्वस्व भी देके सुखी बनाऊँ मैं ||२ कैसा भी भोषण कष्ट हो, प्रण से न तिलभर भी हिलू | हँसता रहूं कर्त्तव्य की वेदी पै शीस चढ़ाऊँ मैं ||३ छोटे - बड़े का भेद तज सेवक बनूं मैं विश्व का । अपने बिगाने की विषभरी दिल से दुई मिटाऊँ मैं ||४ धर्म की लेके आड़ मैं, मत भेद करू न कभी जरा । सत्य जहां भी मिले वही, पूर्णतया झुक जाऊँ मैं ।।५ स्वर्ग तथैव च मोक्ष की इच्छा नहीं कुछ भी "अमर" । अब तो यही है कामना, सफल नृजन्म बनाऊँ मैं ||६ ॥ इति ॥ प्रशस्त प्रार्थना दया दुग्ध सिन्धो ! दुःखी दुःख हारी । सदा निर्विकारी ! भव भ्रांति हारी ॥ध्र ु. जगा दो । हृदागार में ज्ञान ज्योति Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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