Book Title: Bhavanjali
Author(s): Amarmuni
Publisher: Veerayatan

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Page 65
________________ [ ५६ ] व्यर्थ जीवन गजव करते हो ये भारी वृथा जीवन गवाते हो नहीं कुछ सोचते दिल में योंहीं आफत उठाते हो ॥ध्र. १ किसी पुरुषार्थ के बल से मिला है जन्म नर तुमको, विषय भोगादि में फंसकर क्यों सिंधू में डुवाते हो। २ जरासी जिन्दगानी पर हुए हो क्यों दिवाने तुम, भला छल छंद रच क्यों दीन जीवों को सताते हो । ३ हिला गर्दन विकल मुंह कर महा वैराग्य में आकर बड़ा अफसोस शिक्षा तुम सदा सबको सुनाते हो। ४ दयामय धर्म उत्तम है गहो इसको मेरे मित्रो तजो यह दुर्गति नारग अमर तुम जिसको चाहते हो संगीतिका से 6CNM ताल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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