Book Title: Bhavanjali
Author(s): Amarmuni
Publisher: Veerayatan

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Page 100
________________ [ ६४ ] जाति, धर्म के क्षुद्र अहं पर, लड़ना केवल पशुता है। जहाँ नहीं माधुर्य भाव हो, वहाँ कहाँ मानवता है ।। मंगल ही मंगल पाता है, जलते नित्य दीप से दीप । जो जगती के दीप बनेंगे, उनके नहीं बुझेंगे दीप ॥ धर्म न बाहर की सज्जा में, जयकारों में आडम्बर में । वह तो अन्दर - अन्दर गहरे, भावों के अविनाशी स्वर में ।। 'मैं' भी टूटे, 'तू' भी टूटे, एक मात्र सब हम ही हम हों। 'एगे आया' की ध्वनि गूजे, एक मात्र सब सम ही सम हो। यह भी अच्छा,वह भी अच्छा, अच्छा-अच्छा सब मिल जाए। हर मानव की यही तमन्ना, किन्तु प्राप्ति का मर्म न पाए ।। अच्छा पाना है, तो पहले, खुद को अच्छा क्यों न बना लें। जो जैसा है, उसको वैसा, गिलता यह निज मन्त्र बना लें। परिवर्तन से क्या घबराना, परिवर्तन ही जीवन है। धूप-छांव के उलट फेर में, हम सब का शक्ति - परीक्षण है।। सत्य, सत्य है, एक मुखी है, उसके दो मुख कभी न होते। दम्भ एक ही वह रावण है, उसके दस क्या, शत मुख होते ॥ एक जाति हो, एक राष्ट्र हो, एक धर्म हो धरती पर। मानवता की अमरज्योति सब-ओर जगे जन-जन, घर-घर । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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