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वीरायतन राजगृह
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राष्ट्रसंत उपाध्याय अमरमुनिजी महाराज
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पुस्तक: भावांजलि
लेखक : राष्ट्रसंत उपाध्याय अमरमुनिजी महाराज
प्रकाशक: वीरायतन राजगृह-८०३११६ नालन्दा-बिहार
प्रथम आवृति : २६ जनवरी १९६६
मुद्रक :
वीरायतन मुद्रणालय राजगृही
। मूल्य : '३/- (तीन रुपये मात्र)
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प्रकाशकीय
"गुरु गौतम गौतम गौतम जपो " ध्यानमेरु से उच्चरित प्रार्थना के भक्तिपूर्ण स्वर आकाश में फैल रहे हैं । सहसा मेरे मानस पटल पर एक स्मृति चित्र उभर आया वि० सं० १९९४ को । पाथर्डी के जैन छात्रावास के छात प्रार्थना में गीत गा रहे हैं "वन्दे वीर सुवीरं सुधीरं वरं " । सर्वप्रथम पूज्य गुरुदेव का यही गीत तो मैंने उस दिन सुना था। सैकड़ों गीत आत्मशक्ति कर्मशक्ति को जगाने वाले राष्ट्रीय, सामाजिक, दार्शनिक, आध्यात्मिक तथा भक्ति क्षितिज को नया विस्तार देनवाले ये गीत, साहित्य एवं संगीत के जगत में पूज्य गुरुदेव का दिव्यावदान है ।
बचपन से ही मैंने शास्त्रों का एवं सूत्रों का सुस्वर पाठ किया है। हजारों की संख्या में गीत गाये हैं किन्तु जो विलआनन्द पूज्य गुरुदेव के गीतों में आया है, वह कुछ क्षण ही है । आश्चर्य होता है, इतना अद्भुत रस पूज्य गुरुदेव श्री की स्वरबद्ध एवं छन्दबद्ध रचनाओं में कैसे आता है । जब की पूज्य गुरुदेव की "मसी कागज छओ नहीं, कलम लही नहीं हाथ ।" वाली स्थिति में किशोरावस्था में बीती है । फिर भी बचपन से उनके भीतर काव्य धारा प्रवाहित रही । साथियों के बीच, दृद्ध मंडलियों में उत्सवों में स्वयं के बनाये गीत गाते थे | दादागुरु पूज्य मोतीरामजी महाराज एवं गुरु पूज्य पृथ्वीचंद जी महाराज के स्नेह पूर्ण वरद सान्निध्य में आने के बाद अध्ययन का श्री गणेश हुआ
।
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और रचनाएँ लिपिबद्ध होने लगी। उनकी अनुमति लिए बिना ही महेन्द्रगढ़ के लाला जवाहर प्रसाद जी ने गीतों की पुस्तक प्रकाशित की सं० १९८६ । फिर तो प्रकाशन का सिलसिला चालु हो गया। जिसको जो रचना प्राप्त हुई उन्होंने विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित की। अजमेर सादडी, सोजत, भीनासर, बीकानेर के साधु सस्मेलनों में गुरुदेव के गीत समूह गान में गाये जाने लगे। उस जमाने में पूज्य आत्माराम जी महाराज पूज्य अमोलक चन्द जी महाराज और पूज्य जवाहरलालजी महाराज ने इन भजनों की खुब प्रशंसा की थी इस छोटे उम्र में हजारों भजन बनाये और पूज्य जवाहर लालजी महाराज तो अपने व्याख्यान में भजन गाते थे।
विशेष राष्ट्रपति भवन में राष्ट्रपति ने गुरुदेव को अपने भवन में आमंत्रण किया महात्मा गाँधी के साथ तो खूब चर्चा प्रश्न उत्तर होते थे। · श्रीमती इन्दिरागाँधी ने स्वर्ण जयन्ती दीक्षा के दिन दिल्ली में हजारों लोगों के सामने चादर भेंट की श्री मुरारजी भाई देशाई वीरायतन में आकर गुरुदेव से भेंट की विशेष आजादी के आन्दोलन में आन्दोलनकारी बड़े भारी उत्साह से गीत गाते थे। परिणाम आया कि एक तरफ तत्कालिन पटियाला सरकार ने उनकी पुस्तक जब्त करवा दी, तो दूसरी तरफ "अमर मुनिजी महाराज" इस प्रिय नाम के साथ-साथ जनता का दिया गया नाम "कविजी महाराज" लोकप्रियता पा गया। तबसे वे "कविजी महाराज" इस
(ख)
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नाम से जाने-नानं लगे ।
कविजी महाराज के विशाल गीत भंडार के आत्मशक्ति एवं कर्मशक्ति जगाने वाले १०० गीत प्रस्तुत भावांजलि में संकलित है । ( विशेष )
जिनशासन के प्रसार के गीरमापूर्ण इतिहास में महिमामंडित नाम होगा। आचार्य श्री चन्दना श्रीजी का । गौरव है, कि वह मेरी प्रियाति प्रिय शिष्या है। उनकी सौ- प्रेमकुंवर कटारिया, जो दिव्य आत्मा को जन्म देने के परम सौभाग्य से धन्य धन्य हुई है । बचपन से हम दोनों साथ-साथ रहे हैं । बहुत करीब से जीवन की दीर्घ यात्रा हमने तय की है ।
छोटे-बड़े, गरीब-अमीर, सबको सफल जीवन जीने के लिए जिसमें मां की ममता एवं अनुशासन बराबर मिलता है, नवनीत सी कोमलता एवं वज्र चट्टान सी दृढ़ता उभय रूप एकसाथ जिनमें साकार हुए हैं। संपूर्ण नारित्व जिनमें आविर्भूत है ऐसी महान नारी हैं । प्रेमकुंवर बहन । उनके उदार सहयोग से यह समर्पण संभव हो पाया है ।
प्रार्थना एवं चिन्तन की वेला में अवश्य ही यह पुस्तिका आपके भावों में विचारों में प्रेरणा देगी, ओर जो जीवन को जगायेगी ।
समग्र भावों के साथ श्री चन्दनाजी के जन्म दिवस पर भेंट साध्वी श्री सुमती कुंवरजी महाराज वीरायतन (ग)
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वीर - वन्दन वन्दे वीरं सुवीरं सुधीरं वरम्, . ." शान्तं दान्तं महान्तं सदाप्तं तरम् । ध्र. येन हिंसा मूक - पशु संहारिका विलयी कृता, शान्तिदा देवी दया सर्वत्र संप्रतिसारिता।
.. वीत - द्वैतं तमीड़े दयासागरम् । वन्दे १ येन सम्यग् ज्ञान पयासा प्राणिनो विमली कृताः योजयित्वा धर्म मार्गे दुर्जनाः सुजनी कृताः ।
___ सर्वज्ञं तं स्वतन्त्रं यजे सादरम् । वन्दे""२ देशना दत्ता स्वतन्त्रा, साम्यभाव प्रसारिणी ., दीन - दुर्बल - रक्षिका, बहु भिन्न भाव विदारिणी।
साम्याधारं सहर्ष भजे शंकरम् । वन्दे "३ दीनता - सम्वर्द्धकः किल कर्तृवादः खण्डिताः दैन्यहारी क्रान्तिकारी कर्मवादी मण्डितः
...: भव्य वन्द्य सुदेवं श्रये सन्नरम् । वन्दे ४ ध्यानगम्यो योगिनां यो भावरिपु संहारक: सत्य धर्मोद्धारकः संसार - सागर - तारक:
'पृथ्वीचन्द्र ' नमामि सुसंयम धरम् । वन्दे "५
वीर - वन्दना प्रभो वौर ! तेरा ही केवल सहारा । जगत में न कोई शिवंकर हमारा ॥ध्र.।।
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[
२ ]
सभी ओर कर्मों का है घेरा डाला। कृपा कर दो ऐसी उड़े पारा - पारा ॥१॥
जला ज्ञान दीपक दिखा मार्ग सदसत् ।।
भटकते फिरें, घोर धुन्ध पसारा ॥२॥ निकट शीघ्र से शीघ्र अपने बुलालो। पड़े ताकि जग में न आना दुबारा ॥३॥
॥ इति. ॥
प्रार्थना दीनबन्धो ? ज्ञान सूरज का उजेरा कीजिए।
दूर यह अज्ञान का सारा अंधेरा कीजिए ॥ध्र ।। छा रही काली घटायें पाप की चारों तरफ ।
धर्म की वायु से कलिमल दूर सारा कीजिए ॥११॥ देश को बर्बाद करती है अविद्या पापीनी ।
दुःखहारी मूल से संहार इसका कीजिए ॥२॥ रूढ़ियों को ही धर्म बस मानते हैं आजकल । नाश जल्दी अब 'अमर' इस मान्यता का कीजिए ॥३॥
॥ इति. ॥ प्रभु का नाम कैसा है ? नाम प्रभु · का प्यारा वन्दे ।२।।।टे.॥ शक्कर मीठी मिसरी मीठी,
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नाम सुधा की धारा । भवसागर में डूबी नैया,
नाम ही एक सहारा वन्दे ॥१॥ जब भी भीर पड़ी भक्तों पे,
नाम का मन्त्र उवारा वन्दे ॥२॥ सच्चा है बस नाम प्रभु का,
झूठा है जग सारा वन्दे ॥३॥ माया की उलझन में फंसकर,
क्यों प्रभु - नाम बिसारा? ॥४॥ नाम मन्त्र के आगे पल में,
काम, क्रोध, मद हारा वन्दे ॥५॥ 'अमर' जिधर भी देखा . जग में, नाम ही नाम निहारा वन्दे ।।६।।
॥इति.॥
भव्य भावना प्रभो प्रेम सागर में तेरे बहूं मैं ।
भ्रमर तेरे चरणों का हर दम रहूं मैं ॥ ध्रु.॥ हद एक इञ्च भी अपनी न राह से। कभी भी न गन्दा करूँ कंठ आह से ॥
. करूं पूरा जो कुछ भी मुख से कहूं मैं ॥१॥ दुखी दुर्बलों का बनू मैं सहारा।
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[ ४ ]
कभी स्वप्न में भी करू ना किनारा ॥
सदा लोक सेवा का दृढ़ व्रत गहूं मैं ||२॥ सताया किसी से मै कैसा ही न माथे पै बल अपने में नेक
बुराई के बदले
लुटा ज ऊँ मैं धर्म - वेदी पै सब करूँ काम ऐसा करें याद सब
'अमर' धर्म हिंत लाख ॥ इति ॥
जाऊँ ।
लाऊँ ॥
भलाई चहूं मैं ॥३॥
अगर वीर न जगाता ?
अगर वीर स्वामी हमें ना जगाता,
तो भारत में कैसे नया रङ्ग आता ? ध्रु. चदज ज्ञान का सत्य - सूरज
न होता
तो कैसे अविद्या अंधेरा
न बचता पशु एक भी यज्ञ बलि से,
बने ईश
धन ।
जन ॥
मुश्किल सहूं मैं ॥४॥
अहिंसा का गर्जन न जो वह सुनाता ? २ || म नव न जो यह बताता
तो पापो के दल पे विजय कौन पाता ? ३॥ सभी जाति आपस में लड़ - लड़ के मरती
न जो विश्व से प्रेम करना सिखाता ? ४ ||
नशाता ? १।।
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न करता अगर कर्ता पन का जो खण्डन
तो पुरुषार्थ का फिर किसे ध्यान आता ?५।। अमर हो अमर धाम में जा बिराजा
'अमर' धर्म का धन्य डङ्का बजाता ?६॥
मेरी ओर .. प्रभुजी क्या है देखो ना जरा तो मेरी ओर ? ॥ध्रु.॥ ऊजड़ मग भव - विपन भयङ्कर, चल रही आँधी घोर
____ जान दीन असहाय मुझे हा ? लूट रहे कलि चोर ॥१ भूल गया औसान सभी मैं, चले न कुछ भी गौर।
नाथ तुम्हीं हो अब तो मेरे केवल रक्षा ठोर ॥२ तुम तो पावन हो परमेश्वर में पतितन सिरमोर।।
दीनबन्धु ? क्यों देर करो कुछ करो स्वपद पै गौर ॥३ पुत्र दुःख में लेत पिता का, करूणा - सिन्धु हिलौर
किन्तु ग्वेद क्या कारण मुझ पै बन गये कठिन कठोर ॥४ अब तो अपने तुल्य करो प्रभु, यह जन पामरढोर । ___ 'अमर' लग रही लौ तुम ही से, जैसे चन्द्रचकोर ॥५
॥ इति.॥
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[ ६ ] प्रतिज्ञा ?
प्रभो ? वीर तेरा ही सुमरण करूंगा।
जगत में तेरे गीत गाता फिरूगा ॥ध्र, चलूगा सदा तेरे बतलाये पथ पर।
कदम एक पल भर न पीछे धरूंगा ॥१ अटल सत्य का मर्म लोगो से कहते।
किसी भी न जन से जरा भी डरूँगा ॥२ रहूंगा अटल धर्म रक्षा की खातिर ।
बड़े हर्ष के साथ हँस - हँस मरूँगा ॥३ तड़पता है कस्टो से सारा ही भारत ।
सभी द्वेष क्लेशो की पीड़ा हरूँगा ॥४ अविद्या के कारण बने नर पशु से।
हृदय में 'अमर' ज्ञान बिजली भरूगा ॥५
प्रभु - भक्ति जगदीश के पद पंकजों में नित्य शीश झुकाइये
आनन्द परमानन्द फिर तद्रुप होकर पाइये ॥ध्रु. संसार के सुख - भोग तूफानी समन्दर है अतः
प्रभु - नाम नौका में मजे से बैठकर तर जाइये ॥१ चिरकाल से दुःख देते आये हैं प्रबल कर्मों के दल
भगवद भजन तलवार से कुहराम इनमें मचाइये ॥२
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. [ ७ ] प्रभु के बताये मार्ग पर चलना ही प्रभु की भक्ति है
अतएव शम दम को हृदय के भाव से अपनाइये ।३ मत मतान्तर के बखेड़ों में धरा क्या है 'अमर'
आदर्श मत अपना तो केवल ईश - भक्ति बनाइये ॥४
महावीर ! शान्ति - सुधारस के वर सागर ।
क्लेश अशेष समूल संहारी ॥ लोक, अलोक विलोक लिये।
जग लोचन केवल ज्ञान के धारी॥ शेप, सुरेश, नरेश सभी।
प्रण में पद - पङ्कज बारम्बारी ॥ वीर जिनेश्वर धर्म दिनेश्वर ।
मङ्गल कीजिये मङ्गल कारी ॥
जिन स्तवन ! रसने ! रट लेना, सदा सुरु द शुभ नाम ! ॥ध्रु.
ऋषभ अजित सम्भव भवहारी, अभिनन्दन नन्दनता - कारी ।
सुमति सदा अभिराम ॥रसने...॥१
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[
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सुपार्श्व दया के चन्दा प्रभु तिहुं निष्काम
श्री शीतल
श्रेयांस मुनीश्वर,
गम्भीर गुणीश्वर । विमल - विमल गुण धाम ॥ रसने ॥३
नाथ अनन्तजी अविचल ध्यानी, धर्म शांति वर - केवल ज्ञानी । हों दुःख दूर तमाम ॥ रसने ॥४
कुंथु अरह मल्लि
जिन स्वामी,
सुनामी । गान ॥ रसने॥५ अहिंसा नाद बजैया । भजले आठों याम ॥ रसने''''।।६
पद्म
पुष्प दन्त
वासु पूज्य
-
मुनि सुव्रत नमि नेमि
कर डट के गुण पार्श्वनाथजी नांग बचैया, वीर
कूप
अन्ध लगा "अमर"
मुझे
w
सागर,
जगत उजागर ।
॥ रसने॥२
सीधे मग पर अब तो होले,
पाप
कालिमा
अपनी
करले
विश्व गुलाम ॥ रसने
में
गेरे,
मन्दिर
मृत्यु से
मतना
-
में डेरे ॥
थाम
फ्र
धोले ।
॥७
॥ रसने॥८
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[ ६ ]
दिल की
चाह ?
वीर जिनेश्वर आपका सच्चा भगत बन जाऊँ मैं । पाप भरी जग - वासना दिल से समस्त हटाऊँ में ॥ घ्र.. शान्त हृदय में द्वेष की, धधके न कभी चिगगारियाँ | शत्रुजनों पै भी सदा, प्रेम की गंगा बहाऊँ मैं ||१ दीन दुःखी को देख कर आँसू बहाऊँ, रो उठू । जैसे बने सर्वस्व भी देके सुखी बनाऊँ मैं ||२ कैसा भी भोषण कष्ट हो, प्रण से न तिलभर भी हिलू | हँसता रहूं कर्त्तव्य की वेदी पै शीस चढ़ाऊँ मैं ||३ छोटे - बड़े का भेद तज सेवक बनूं मैं विश्व का । अपने बिगाने की विषभरी दिल से दुई मिटाऊँ मैं ||४ धर्म की लेके आड़ मैं, मत भेद करू न कभी जरा । सत्य जहां भी मिले वही, पूर्णतया झुक जाऊँ मैं ।।५ स्वर्ग तथैव च मोक्ष की इच्छा नहीं कुछ भी "अमर" । अब तो यही है कामना, सफल नृजन्म बनाऊँ मैं ||६
॥ इति ॥
प्रशस्त प्रार्थना
दया दुग्ध सिन्धो ! दुःखी दुःख हारी ।
सदा निर्विकारी ! भव भ्रांति हारी ॥ध्र ु.
जगा दो ।
हृदागार में ज्ञान ज्योति
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१० ]
अविद्या तमस्तोम दूरी भगा दो ॥१ भले ही करें लोग निन्दा - बुराई ।
बनें प्राण - बैरी, न मानें भलाई ॥ हमें स्वन्न में भी नहीं रोष आवे ।
भलाई न छोड़े, भले प्राण जावें ॥२ दुःखी - दीन ज्यों ही कहीं देख पावें।
कि त्योंही स्वतः अश्रु - धारा बहावें ।३ सभी भांति आनन्द - भागी बना दे।
. खुशी से स्वसंपत्ति सारी लुटा दें ॥४ विपद - ग्रस्त चाहे बनें क्यों न कैसे ?
रहें धैर्य - धारी हरिश्चन्द्र जैसे ॥५ प्रति ज्ञात - वाणी कभी भी न छोड़ें।
निजोद्दे श की ओर निर्वाध दौड़ें ॥६ किसी को नहीं जन्मतः नीच माने ।
. अछतादि मिथ्या सभी भेद टाले ॥७ वृणा पापियों से नहीं, पाप से ही।
रहें प्रेम से सर्व ही भ्रात से ही ॥८ नहीं चाहते नर्क में दैत्य होना ।
नहीं चाहते स्वर्ग में देव होना ॥ हमारी प्रभो ? आपसे प्रार्थना है।
हमें तो मनुष्यत्व की चाहना है ॥१०
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[ ११ ]
जीवन में मधु घोल !
खोल मन ! अब भी आँखें खोल ।
उठा लाभ कुछ मिला हुआ है, जीवन अति अनमोल ॥ध्रु.
जग
पति के
प्रेम सुधा पी
अपने मन में
है
चरणों में सोजा,
पागल
होजा ।
अथ इति खोजा
भ्रम की मदिरा ढोल ॥ १
देख दुःखो को भट हिल जा तू
सेवा में तिल तिल पिल जा तू । अद्वैती बन सङ्ग सिल जातू बोल न कुछ भी
'अमर' अमर पथ पर पद घर ले
भवसागर तर ले |
दुस्तर तम अन्दर बाहर खुशबु भर ले
बोल ||२
जीवन में मधु घोल ||३
।। इति ।।
मनुष्य !
मनुज हूं मैं यहाँ मनुजत्व का उपहार लाया हूं हिमालय सा अतुल कर्तव्य का गिर भार लाया हूं ॥ध्रु.
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[ १२"]
मिलेगा जो मुझे आनन्द मद में झूम जाउँगा।
- हृदय में प्रेम - वीणा की मधुर झनकार लाया हूं ॥१ सुगन्धित पुष्प हूं खिलकर सुगन्धित विश्व भर दूंगा।
- कभी भी कम न हो वह गन्ध का भण्डार लाया हूं ॥२ सतायेंगे मुझे क्यों कर कुटिल रिपु काम क्रोधादिक ।
चमकती ज्ञान की तीक्षण अटल तलवार लाया हूं।।३ पड़े आपत्तियों के वज्र शिर पर क्यों न कितने ही।
हटू गा इञ्चना पीछे विजय का सार लाया हूं। ४ मिटेंगे देश कुल और जाति के सब भेद जग में से।
अखिल भू पर वसा नर जाति का परिवार लाया हूं ।।५ बदल दूंगा सभी हा - हा भरी यह नर्क की दुनियाँ।। 'अमर' सुन्दर शिवंकर स्वर्ग का संसार लाया हूं ॥६
॥ इति । - जीवन का सार इसी में है कौन न महिमा का आगार ? प्राप्त हुआ है किसे जगत में पूजा का अधिकार ?ध्र. छोटे से छोटे जीवों पर रखता कृपा अपार अखिल विश्व में सदा बहाता भ्रातृ - भाव की धार
प्रेम में डूबा सब संसार ? १ द्वेष - क्लेश का लेश नहीं है, नहीं घृणा कुविचार स्वच्छ हृदय है, उठें कहीं भी नहीं जरा कुविचार
, पूर्ण है संयम का अवतार ? २
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[ १३ ]
अपना करे
क्यों न अपकार
कैसा भी कोई भी शान्ति पूर्ण उपकार रूप में करता है प्रतिकार
क्षमा का खुला रखे नित द्वार ? ३ भेद मिटाकर, करले हृदय उदार पथ पर सब लुटा दिये भण्डार विश्व का बने एक आधार ? ४
अपना पर का दान दक्षिणा के
मन वाणी और कर्म सभी में अमृत का संचार आस-पास में लाखों कोसो नहीं तनीक भी क्षार "अमर" है मृत्युन्जय हुङ्कार ? ५ ॥ इति ॥
भक्तों से परेशान भगवान
मनुष्यों ? क्यों मुझे जबरन नमस्ते है तुम्हें, तुम तो पिता हं विश्व का फिर भी लिटा कर पालने में नहीं लगती मुझे सर्दी, नहीं लगती मुझे गर्मी
उढाते क्यों दुशाले और पंखे क्यों बुलाते हो ? ३ स्वयं मैं शुद्ध निर्मल हूं, तथा औरों को करता हूं
समझ का फेर हैं प्रतिदिन, किसे मल-मल नहलाते हो ?४ भला मुझ निर्विकारी का, विवाह क्या रंग लायेगा बिछा कर पुष्प शैया प्रेम से, किसको सुलाते हो ? ५
अपन जैसा बनाते हो मेरी प्रभूता घटाते हो । १६.. समझते बाल छोटा सा लोरियाँ, दे-दे सुलाते हो ॥२
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[ १४ ] नहीं हूं मैं तुम्हारे मिष्ट मोहन भोग का भूखा
वृथा ही नाम ले मेरा, स्वयं मौजे उड़ाते हो ॥६ दया करके मुझे नीचे गिरानां छोड़ दो भक्तों ?
'अमर' मम तुल्य बन कर क्यों, न मेरे पास आते हो ?७
॥ इति ।
भारत की देवियाँ ? भारत की नारी एक दिन, देवी कहलाती थी,
संसार में सब ठौर - आदर - मान पाती थी ? |ध्र. वनवास में श्री रामजी के, साथ में सीता
महलों के वैभव को घृणा करके ठुकराती थी ? १ महारानी झांसी वाली, अपने देश के खातिर ..... ....।
- तलवारें दोनों हाथों से, रण में चमकाती थी ? २ चितौड़ में यवनों से अपने, सत की रक्षा को
. हँस-हँस के अग्निज्वाला में, सब ही जल जाती थी ?३ पत्नी श्री मंडन मिश्र की, शास्तार्थ करने में . आचार्य शंकर, जैसों के छक्के छड़वाती थी ? ४ मार्तण्ड सा कटु तेज था, वर क्या 'अमर' पूछो दुष्कर्मकारी गुण्डों की आँख मिच जाती थी ? ५
॥ इति.।।
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[ १५ ]
महावीर के पथ पर वीर प्रभु के पथ पै, कदम बढ़ाते जाना।
मानव जन्म अमोलक सफल बनाते जाना ॥ध्र. प्रेम के साथ रहना, सब मीठी कड़वी सुनना।
उत्तर मैं कुछ ना कहना, दिल से भुलाते जाना ।१ गर्व न कुछ भी करना, जग हैं बस जीना मरना।
होकर के नम्र विचरना, शीस झुकाते जाना ॥३ आवे जो दर पै दुखिया, शीघ्र बनाना सुखिया।
सेवा में बन कर मुखिया, कीति कमाते जाना ।।४ पंथो का जाल हटाके. मैं तू का भेद मिटाके ।
सबको इक साथ जुटाके, सत्य सुनाते जाना ।।५ मन्दिर है प्रभु का नरतन, कर ले यदि तनमन प्रावन । बनकर तू 'अमर सुभगवन, दर्श दिलाते जाना ॥६
॥ इति ॥ ......
जैसी करनी वैसी भरनी बोवोमे जैसा बीज तरू वैसा लहरायेगा
जैसा करोगे वैसा ही फल आगे आयेगा ।१ कूएँ में एक बार कुछ भी बोल देखिये
वैसा कहोगे वैसा ही वह भी सुनायेगा।२।।
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[ १६ ] जोड़ोगे हाथ खुद तो, दर्पण विम्ब जोड़ेगा
चांटा दिखाओगे तो, भट च टा दिखायेगा | ३ कांटा बनोगे तुम किसी की राह में, अड़कर
कांटा बनेगा एक दिन वह भी सतायेगा |४ थूकोगे गर नादान होकर आफताब उपर वापिस गिरेगा मुँह पर आ, दुनियाँ हँसायेगा 1५ चाहते हैं लोग तुमको, कैसा जानना है क्या ?
अपने हृदय से पूछिये वह खुद बतायेगा | ६ संसार में मीठे 'अमर' बन कर सदा रहना
आदर्श नर जीवन तुम्हें ऊँचा उठायेगा ।७ 11 gfa. 11
जीवन के अन्तिम क्षण में?
भगवन ! प्रसन्न हम हों, जब प्राण तन से निकलें आदर्श विश्व के हो, जब प्राण तन से निकले ॥ध्र ु. उदयास्त राज्य ठुकरा, सानन्द सत्य कारन
फांसी पं भूलते हों, जब प्राण तन ने मिकलें ॥१ वन न्याय - पक्षी, हस्ती अन्याय को मिटाने
सिर हाथ ले खड़े हों, जब प्राण तन से निकलें ॥२ रक्षार्थ जातिशत्रू भी वह शरण में आये
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[ १७ ] जी-जान होमते हों, जब प्राण तन से निकले ॥४ भूखों अपाहिजों को सर्वस्व दे दिलाकर ।
उपवास हो रहे हों, जब प्राण तन से निकले ॥५ ऋण मातृ भूमि का सब, डंके की चोट देकर
जय -घोष गूजते हों, जब प्राण तन से निकले ॥६ हँसते ही हों 'अमर' हम, रोता हो देश सारा मरकर भी जी रहे हों, जब प्राण तन से निकले ॥७
॥ इति. ॥
भगवान कहाँ ? अफसोस है, मुझे तुम यहाँ - वहाँ तो ढूँढते हो
मौजूद हूं जहाँ में वहाँ पर न ढूँढते हो ॥१ मन्दिर व मस्जिदों में, गिरजा घरों के भीतर
__ सोता हुं आलसी क्या, वहाँ जा पुकारते हो ॥२ काशी जेरूसेलम में, मक्का में कैद हूं क्या। .. मिलने मुझे जो वहां तुम बेसांस दौड़ते हो ॥३ लज्जा से डुबा हूं क्या, गंगा गोदावरी में
बाहर निकालने को जो उसमें कूदते हो ॥४ दोनों व दुखितों की सेवा में रहता हूं मैं
हिम्मत हो जिनकी देखो क्यों दूर भागते हो ॥५ मिलना अगर मिलो यहां, सेवाव्रती 'अमर' हो
नहिं तो ये भक्तपन का, क्यों ढोंग बाँधते हो ॥६
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[ १८ ] दया बिन बावरिया.....! दया बिन बावरिया, हीरा जन्म गॅवाये। .. कि पत्थर से दिल को, क्यों ना फूल बनाये ॥ध्र . कोमलता का भाव न मन में फिर क्या सुन्दरता से तन में।
जीवन विष बरसाये ॥१ दीन दुखी की सेवा कर ले, पाप - कालिमा अपनी हर ले।
तिहुं जग मङ्गल गाये ॥२ धन लक्ष्मी का गर्व न करना, आखिर को सब तज कर मरना।
पर - हित क्यों न लुटाये ॥३ यह जीवन है एक कहानी, पाप पुण्य है शेष निशानी ।
'अमर' सत्य समझाये ॥४ ॥ इति. ॥
अतीत की नारियाँ भारत में कैसी थी एक दिन, शीतलवती कुल नारियां । धर्म के पथ पै जो हुई हँस - हँस के बलिहारियां ॥ध्र. राजा विराट के महल में, पक्की रही थी द्रौपदी कीचक कुमौत मरा वृथा, खाली गई सब वारियाँ ॥१.
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[ १६ ]
रावण से दैत्य की कैद में सत्यवती सीता रही, भेले भयंकर कष्ट पर, मानी नहीं बदकारियाँ ॥२ जौहर हुआ चितौड़ में, गौरव बढ़ा मेवाड़ का जिन्दा हजारों जल भरी, हँसती हुई सुकुमारियाँ ॥ ३ लक्ष्मी थी लक्ष्मी हिन्द की, खूब लड़ी रण भूमि में, देश हित जोगन बनी छोड़ के महल अटारियाँ ||४
रानी थी पृथ्वीराज की कैसी भयङ्कर शेरनी काँपा था अकबर आँखों में फटने लगी थी तारियाँ ॥५ गौरव पुराना याद कर, साहस की बिजली अब भरो उठो 'अमर' बहिनो करो उन्नति की तैयारियां ॥ ६ ॥ इति. ॥
धर्म का पतन !
बहाना धर्म का करके, गजब किस तौर ढाते हैं, अखिल मानव जगत पर जाल, माया का बिछाते हैं ॥ घ्र.. चढ़ा पत्थर के देवों पर हजारों भैंसे और बकरे, खटाखट खंजरों से खून का दरिया बहाते हैं ॥१ खड़ी कर दो कहीं ईंटें बनाई शीतला माता,
भगों - भग जातरी आते, पुजा भी ला चढ़ाते हैं ॥२ तरसते दो दो दानों को हजारों भाई अति भूखे, हवन में घी मनों फूकें अकल पे धूल छाई है || ३
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[ २० ] वन एजेन्ट मुर्दो के, चलाया श्राद्ध का धंधा ।
पितर के नाम पर भूदेव, ताजा माल खाते हैं ॥४ अछुतो को न घुसने दें, कभी भी धर्म स्थानों में, . अगर सत्कर्म करलें तो, भी धड़ से शिर उड़ाते हैं ॥५ दबोचे कान बैठा धर्म, आगे धर्म वालों के, 'अमर' चाहा जिधर, ले धर्म की गर्दन घुमाते हैं ॥६
॥ इति.॥
क्या किया ! तूने आके जगत् में बता क्या किया, __ काम अच्छा सुयश का बता क्या किया ! ध्र. पेट दिन रात अपना ही भरता रहा, खा - खा मेवा मिठाई अफरता रहा।
... भूखे मरते न भाई को टुकड़ा दिया ! ॥१ चाही हर्गिज किसी की भलाई नहीं, छोड़ी कुछ भी क्षणों को बुराई नहीं
टूटा दिल न किसी का दया से सिया ! ॥२ फूल होकर न लोगों के मस्तक चढ़ा, पाठ जीवन सफलता का कुछ ना पढ़ा। .. काँटा बनके 'अमर' गर जिया क्या जिया ! ॥३
॥ इति.॥
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[ २१ ] नैतिक शिक्षा ! अरे मत बोवो पेड़ बबूल । क्योंकि तुम्हारे पग में चुभेंगे एक दिन तीखे शूल ॥ध्रु. दीन जनों का खून चूसकर मत ना बनो तुम स्थूल ।
रो- रो अँखियां फूलेंगी जब, मारेंगे जम रूल ॥१ मत ना छाती तान गर्व से, चलो अपनी सुध भूल ।
एक दिन उड़ जावोगे यहाँ से उड़े हवा से धूल ॥२ मत ना सता - सता कर सबको, करो अपने प्रतिकूल । पत्थर दिल को अब तो बनालो,
अति ही सुकोमल फूल ॥३ पुण्योदय से मिला यह नर-भव मतना खोवो फिजूल।
ब्याज जाय ऐसी तैसी में, रखलो केवल मूल ।।४ ५ अगर सदा सुख चाहते हो तो करलो कहन कबूल । पर उपकारों में ही हरदम । 'अमर' रहो मशगूल ।।
-(०)- प्यार का जमाना है ? ___ सबसे करिये प्यार,
___ प्यार का ही जमाना है ॥ध्रु. शुद्ध प्रेम में दिव्य शक्ति है, जिसका कछ ना पार
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[ २२ ] प्रेमी के वश में होता है. सारा ही संसार
वीर का यह फर्माना ! ॥१ पशुओं में देखा जाता है, प्रेमांकुर सुखकार प्रेम नहीं हैं जिनके दिल में, वे कैसे नरनार !
. निन्द्य नर जनम बिताना है ! ॥२ द्वेष भाब न रखो किसी से, द्वष महा दुःखकार बिना प्रेम के मिटे न हर्गिज भीषण पापाचार
वैर से वैर बढ़ाना है ? ॥३ दूध और पानी से सीखो, करना सच्चा प्यार भेद - भाव रहा नहीं कुछ भी, सहते सुख दुखलार
विपत में प्रेम निभाना है ।।४ स्वार्थ रहित निष्पाप प्रेम ही, कहलाता अविकार 'पृथ्वीचन्द्र' चरण रज सेवी, कहता बीच ही सार,
प्रेम से चित्त लगाना है ! ॥५
स्वार्थ का संसार ? स्वार्थ का संसार है, स्वार्थ का संसार ? ध्र. मात तात सुत बन्धु मित्रगण, और मनोहर नार, प्यार करें सब स्वार्थ पूर्ति से बिन मतलब खूखार ॥१ सुख में सब जन करें प्रेम से, हाँ - हाँ जी •जी कार कष्ट पड़े सब होते न्यारे, देकर बहु धिक्कार ॥२
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- [ २३ ] पुष्प फलान्वित हरे वृक्ष पर, रहते खग परिवार शुष्क हुए सब चले छोड़ कर, करी न ढील लगार ॥३ सूरी कान्ता ने निज पति को, दे विष का आहार स्वार्थ सिद्धि बिन देखो कैसा, कर दिया अत्याचार ।।४ कौणिक और औरंगजेब ने, किया न सोच विचार
स्वार्थ मग्न हो अपने पितु को, दिया कैद में डार ॥५ 'पृथ्वीचन्द्र' गुरु वचनामृत को, हृदय सदन में धार शहर भिवानी बीच 'अमर' कहें, करलो भव्य सुधार ॥६
इति.
क्षण भंगुरता भीम जैसे बली फेंके ..
नभ में गजेन्द्र बृन्द. .. पार्थ जैसे लक्षवेधी कीर्ति जग जानी है॥१ राम कृष्ण जैसे नर पुङ्गव जगत पति । रावण की दैत्यता भी किसी से न छानी है ।।२ काल के न आगे चली कुछ भी बहाना बाजी छिनक में छार हुए, रह गई कहानी है ॥३ तेरे जैसे कीटाकार, मूढ़ की विसात क्या है करले सुकृत चार दिन की जिन्दगानी है ॥४
इति.
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[ २४ ]
सन्त जन ऐसे तर्ज, न कुछ भी संग लाये थे चलेगा संग में भी क्या ? जगत में तारने वाले जगत में संत जन ही है। उन्हें उपमा वहो क्या दे ? अपन से वे अपन ही है ॥ध्र . सकल सुख भोग तज कर के, जगत कल्याण को निकले मनोहर महल जिनके फिर, भयावह शून्य बन ही है ।।१ कठीन संयम सुमेरू के, शिखर पर संत वैठे हैं . जिधर देखो उधर उनके, अमन के गुल चमन ही है ॥२
सुधा की शोध में दुनियाँ, बनी फिरती है क्यों पागल, सुधा तो संत लोगों के, सदा मंगल वचन ही है ।।३ कुल्हाड़ी से कोई काटे, कोई आ फूल बरसाये, हंसी से दे दुआ यकसाँ अजब सारे चलन ही है ॥४ स्वयं पर बज्र भी टुटे, तो हँसते ही रहेंगे पर दुःखी को देख हिल उठते, दया के तौ सदन ही है ॥५ हृदय की हूक से हरदम, हजारों वार वन्दन है, अमर अमरत्व के दाता, सन्त पावन चरण ही है ॥६
महरोली १९८१ मार्गशीसं
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[ २५ ]
सनिक बनेगें तर्ज-विपद में सनमने सँभाली कमलिया
महावीर स्वामी के सैनिक बनेंगे, उसी के बताये
सुपथ पर चलेंगे। १ विपत्ति सहेंगे जो आयेंगी उपर, न तिलमात्र भी निज
प्रणसे डिगेंगे। २ उठाकर अहिंसा का झंडा फिरेंगे, अहिंसा को संसार
व्यापी करेंगे। ३ जियेंगे तो धर्मों की रक्षा की खातिर, इसी धर्म रक्षा
की खातिर मरेंगे। ४ मिटा ऊँच नीच के और भेद भयंकर, अटल साम्य
सूचक नयायुग रचेंगे। ५ लखो शक्ति अपनी बनो पूर्ण ईश्वर, संदेशा प्रभू का
यह सवसे कहेंगे ॥ ६ अनेकान्त नद में मिला मत की नदियाँ, मत द्वेष जगसे
मिटाके रहेंगे। ७ नहाके त्रिरत्न त्रिवेणी हृदय में । __ अमर मुक्ति - मन्दिर में जाके रहेंगे।
क्षेत्रवती वीर जयन्ति १६६३
॥ इति. ।।
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[ २६ ]
गुरु गौतम तर्ज ठिकाना पूछते हो क्या हमारा क्या ठिलाना है गूरु गौतम के चरणों में, सदा निज शिर झुकायेंगे। अटल श्रद्धा व भक्ति से, विमल गुण गान गायेंगे ॥घ्र, पढ़ी वेदादि विद्याएँ, बने विख्यात दिग् विजयी । हजारों वादियों के बाद में, छक्के छुड़ायेंगे ॥१ किया प्रभु वीर से भी वाद, निज हठवाद सब छोड़ा। हुए गणधर पदाधीश्वर, न कुछ देरी लगाते हैं ॥२ अहिंसा तत्व समझाकर, किए पशु यज्ञ विध्वन्सन । जगत में वीर की जयकार विजय डंका बजाते हैं ॥३ बड़ा है सत्य ही केवल, नहीं पदवी बड़ी कुछ भी। स्वयं निज पक्ष तज आनन्द को, घर जा खिमाते हैं ॥४ मिले केशी मुनिश्वर से, किया संवाद संशय हर। परस्पर दूध पानी ज्यों, उभय शासन मिलाते हैं ॥५ गये कैलास पर्वत पर, दिया उपदेश हितकारी । अज्ञानी तापसों को ज्ञान की ज्योति दिखाते हैं ॥६ जगत के संत जन र वते, सदा दिन चित्त मंदिर में। अमर होकर पतित पावन, अमर पद पूर्ण पाते हैं ॥७
दीपावली देहनी १९६१ ॥ इति. ॥
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[ २७ ] अजमेर - मुनि सम्मेलन
तर्ज हो जावो हो जावो कुर्वान होता है-होता है अजमेर, हमारा सम्मेलन ॥ध्र व. देश प्रदेश के मुनि आवेंगे, ज्ञान - मेघ नित वरसावेंगे। गर्जेगे ज्यो शेर ॥ हमारा ।। सम्प्रदाय और गच्छवाद की, शास्त्र, शिष्य और क्षेत्र वाद की, तज देंगे सबमेट | हमारा ।। दूध पानी सा प्रेम करेंगे, मैत्री भावना पुष्ट करेंगे। द्वेष दिलो से मेट । हमारा॥ संघ संप के नियम घड़ेंगे, फूटः दुर्गपर टूट पड़ेगे । कर देंगे ढम ढेर ॥ शिक्षण क्रम तैयार करेंगे, होकर सब विद्वान टेरेंगे। मिथ्यातम अंधेर । क्रिया काण्ड सब एक जुटेगा, अब पतन का मूल मिटेगा। देंगे ढोंग उखेर ।। जैन जाति अब उन्नत होगी, सबको मार्ग प्रदर्शक होगी। जरा न होगी देर । पृथ्वीचंद जिन धर्म दपा का, अमरचन्द्र जयवीर बुलाकर । देखें सतयुग फेर ॥
अजमेर मुनि सम्मेलन १६६०
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[
२८ ]
धर्म का पतन तर्ज सखी सावन बहार आई झुलाए जिसका जी चाहे वहाना धर्मका लेकर गजव कैसा मचाते है अखिल मानव जगत पर जाल, मायाका विछाते है ॥ध्र. चढ़ा पत्थर के देवों पर, हजारों भैंसे और बकरे। खटा - खट खंजरों से खून के नाले बहाते हो ॥१ खडी कर के दो कही ईंटे बनाई सीतला माता। भगों भग जातरी आते, पुजापा ला चढ़ाते हैं ॥२ तरसते दो - दो दाने को हजारों बंधु अति भूखे ।। हवन में घी मनो फूके अकल पर धूल जमाते हो ॥३ बने एजेण्ट मुर्दो के चलाया श्राद्ध का धंधा। पितर के नाम पर भूदेव ताजा माला खाते हैं ॥४ अछतों को न घुसने दें कभी भी धर्म स्थानों में। अगर सत्कर्म करलें तो भी धड़ से उड़ाते हैं ॥५ बताकर हिन्दुओं को काफीर युवकों को। खुदा ईश्वर पै मस्जिद, मंदिरों पं नित लड़ाते हैं ॥६ दबोचे कान बैठा धर्म आगे धर्म वालों के । अमर चाहा जिधर ले धर्म की गर्दन घुमाते हो ॥७
नारनोल - पर्दूषण १९६३
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[
२६ ]
श्राद्ध तर्ज- हां घटाएँ गम की छाई आज दिन श्राद्ध भी है हिन्द की अच्छी वला अन्ध श्रद्धा ने किया जग बावला ।। टेर. खा मजे में खीर पूरी मुफ्त की। भर लिया बस पेट नहीं जाता चला ॥१ भूमि पर भूदेव स्वर्गों में पितर । पेट से भोजन किधर वहां को ढला ॥२ विप्र भी मुर्दो के वर एजेन्ट है। वे पूत ही माल भेजे क्या कला ॥३ साल भर रो - रो के तड़फे भूख से। एक दिन से क्या गुजारा हो भला ॥४ हो गये माता पिता हैवान गर । चाहिए भूसा तदा खल में रला ॥५ शास्त्र सारे छानकर देखो अमर । पर न समझे श्राद्ध का कुछ मामला ॥६
नारनोल पितृपक्ष १६६३
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[ ३० ] बूढ. बैल की पकार
हा घटाएँ गम की छाई आज दिन दुष्ट मालिक ! क्या समाया आज दिन
क्यों अकारण मुह चढ़ाया आज दिन ।।टे. १ कड़ कड़ाती धूप में हल में चला,
रक्त तेरे हित सुखाया आज दिन । २ गाड़ियाँ ढो - ढोके कूड़े खाद की,
अस्थि - पंजर आज तन बनाया आज दिन । ३ रात दिन वह बहके पालाथा कुटुम्ब,
हां ! वो सब अहसां भुलाया आज दिन । ४ घास दाना तो चलो कूए पडो,
वक्त पर पानी न पाया आज दिन । ५ कुरडियों पर चावता चिपड़े फिरू,
पेट जालिम ने सताया आज दिन । ६ थी गनीमत इसमें भी लेकिन अहाँ,
क्यों कसाइ ला विठाया आज' दिन ७ बूढ़े होने की सजा, तो क्या कभी,
बाप अपना था विकाया आज दिन ।
तुम किसानों की भलाई कैसे हो । ८ वैल पर खंजर चलाया आज दिन ॥
श्रेष्ट धन वैल भारत का अमर । है लोभ के पर चल गंवाया आज दिन ।।
॥ इति ।।
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[ ३१ ]
हृदयोद्गार तर्ज विपत में सनम के संभाली कमलिया हृदय से हृदय अब मिला दो मिला दो।
सफल सम्मेलन को बनादो - बनादो ॥धु. १ उठो वीर मुनियों न सुस्ती में सोवो।
कदम शीघ्र आगे बढ़ादो - बढ़ादो ।। २ परस्पर की निन्दा ही झगड़े की जड़ है।
इसे मौन - मुद्रा लगादो - लगा दो। ३ मैं ही हूं बड़ा, अन्य क्षुद्र है सारे ।
अहं मान्यता यह मिटादो - मिटादो। ४ गुणों को विचारो न व्यक्ति को देखो।
गुणी देख मस्तक झुकादो - झुकादो। ५ करो फूट की बन्द नालिया गन्दी।
विमल प्रेम - गंगा बहादो - बहादो।। ६ अतीत की जो बाते न कोई उखेडो।
भविष्यत पै दृष्टि जमादो - जमादो॥ ७ क्रिया ज्ञान दोनो लगा तुल्य पाखें ।
गरूड़ बन के अब तो दिखादो - दिखादो। ८ समाचारियाँ जो है टोले की अपनी,
उन्हे अच्छे रंग में सजा दो सजा दो। है बनालो सभी गच्छ एक सुधर्मा,
अटल एक शासन जमादो चला दो १० करो कार्य ऐसा अमरचन्द्र अवतो, विजय धाक जगमें मचादो मचादो।
अजमेर सम्मेलन १६९० . . चैत्र शुक्ल दशमी
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[ ३२ ]
अमर जीवन तर्ज भलाई कर चलो जग में तुम्हारा भी भला होगा। प्रतिक्षण क्षीण जीबन में, अमर खुदको बना देना ।
भविष्यत की प्रजाको अपने, पद चिन्हों चला देना ॥धु. १ दुःखी दलितो की सेवा में, विनय के साथ जुट जाना।
अखिल वैभव बिना झिझके बिना ठिटके लुटा देना । असत् पथ भूल करके भी, कभी स्वीकार ना करना।
प्रलोभन में न फंसकर, सत्यपथ पर सर कटा देना ।। ३ क्रमागत कुप्रथाओं का भ्रमो का मूढताओं का।
अधः पाती निशां मानव, जगत में से मिट: देना ॥ ४ जिनेश्वर बुद्ध हरी हर हो, मुहम्मद हो या ईसा हो ।
सभी सत्यव्रती के आगे, निज मस्तक झुका देना। ६ सहस्त्रादिक प्रयत्नों से मृतक सम देश वालों में।
नया जीवन नया उत्साह, नया युग ला दिखा देना ।। ७ अधिक क्या जन्म लेने का यह अन्तिम सार ले लेना। अमर निज मृत्यु के दिन शत्रुओंको रूला देना ।।
कानोड पोष १६६२
॥ इति ॥
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[ ३३ ]
वैराग्य वर्षा
तर्ज-मुखड़ा क्या देखे दरपन में क्या फूले निज मन में मूरख क्या फूले निज मन में, कुछ नहीं घरा फूलन में, मूरख क्या फूले निज मनमें ।।टे. १ अंट-संट खा पीकर क्या, शक्ति बढ़ावे तनमें ।
आखिर पानी का परपोटा, विनस जाय पल छिन में । २ कोमल - कोमल फूल बिछाकर, क्या सोवे तू महल में ।
याद राख उस दिन की भी, जब सोना होगा अंगन में । ३ कूद-कूद मतलव बिन मतलव, क्या खुश होय लड़न में ।
' देख एक लडैया रावण कैसा मरा था रण में । ४ मोटर वग्घी बैठे ऐंठ से पैर न घरे धरन में ।
देख द्रोपदी नंगे पैरों, फिरी किसी दिन वनमें ।। ५ आँखें मीचे क्या धनमद में, चांदी की छन - छन में ।
देखे दर - दर भीख मांगते, तनिक न वस्त्र बदन में ।। ६ दुनियाँ भर की गपशप मारे, वैठ मित्र परिजन में । __ वेही दूर - दूर करे एक दिन, नफरत करें मिलन में । ७ सीधी - सीधी बात बना और सीधा रहन सहन में । . और नहीं कुछ अमर यहाँ यही बस रहे रहन में ।
महेन्द्रगढ़ १६३१ दिसम्बर ॥ इति.॥
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[ ३४ ]
मन की कुलाटें तर्ज-सुमति दो सुमति नाथ भगवान समझ मन मतना हो शैतान ... होली बहुत मान बस अब तो मतना जादा तान ॥धु. १ मैं सत्संगति करके अपना चाहता निज कल्याण । .. लेकिन ले दोड़े दुर्जन के झट तू वेईमान ॥ २ मैं चाहुं बस सेवक बन के सबका करूं सम्मान ।
लेकिन तू मुभसे करवाता ही उलटा अपमान । ३ मैं भूखे नंगो का करना, चाहुं कुछ धनदान ।
लेकिन तू काड़ी - कौड़ी पर मुझे करे हैरान ।। मैं समता से करना चाहूं अपने दिन गुजरान ।
लेकिन लगा उपाधि नितनव, तू करता हैरान ।। ५ मैं निश्चय एकान्त बैठकर सुमरू जव भगवान ।
विघ्न करे तब सब कामो का, करके मेल मिलाप । ६ तु मेरा है संगी साथी है, तुझे चाहिए ज्ञान ।
आजा वाज अपनी करनी से छोड़दे भूडी वान ।। ७ अमर चंद गुरुदेव कृपा से लीना योग महान । . अब तो रहना दूर अन्यथा करदूंगा अबसान ।।
इति. १६६३
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[ ३५ ]
आज के श्रावक श्रावको ने अपना सब गौरव गँवाया इन दिनो उच्चतम जीवन निरा, पामर बनाया इन दिनो ॥ध्रु. १ शास्त्र का व्याख्यान अब क्यों कर, भला आये पसंद | भैरवी की लहर में, आनन्द पाये इन दिनो ॥ २ छान कर पीते हैं पानी स्थावरो की है दया | कंठ पर दोनों के भट खंजर चलाया इन दिनो ॥ आप तो खुद तो दिन में दो - दो वार दौने चाटते । भूखे मरते भाई को धक्का दिलाया इन दिनो ॥ ४ आके धर्म स्थान में भी छोड़ते न प्रपंचता । धर्म महिमा का वृथा पाखण्ड छाया इन दिनो ।। ५ धर्म रक्षक अब अमर आनन्द से श्रावक कहाँ । नाम धारी श्रावको का दिन है आया इन दिनो || ॥ इति. ॥ फीति कृति
३
2
भूलोक में आये हो कुछ तो कीर्ति भण्डार आगे के लिए भी, याद कर १ दे डालियो जो पास हो, सर्वस्व दीनों के लिए | कोड़ी पे कोड़ी जोड़कर धरती पे ना धर जाइयो । २ जो शत्रु अति ही दुःख दे उसका भी हित कीजे सदा । पिछली बुरी बातो को करके याद मत टर जाइयो । ३ दुष्कर्म करने के हृदय में जब विचार उठें तभी । धर ध्यान रावण आदी के, इतिहास पर डर जाइयो || ४ यह सार है नर जिन्दगी का, लीजियो बनियो अमर । जीना उचित हो जीइयो, मरना उचित मर जाइयो || ॥ इति ॥
कृति कर जाइयो ।
भर जाइयो | ध्रु |
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[
३६ ]
संगठन जरुरत है अब तो बड़ी संघठन की। कमी हो रही है बड़ी संघटन की ॥ध्र १ जो हैं विश्वभर की सुखद सम्पदा वे ।
खरीदी हुई दासियां संघठन की ।। २ विपत्ती के बादल उड़े एक क्षण में ।
चले जब कि पछवा हवा संघठन की ।। ३ जुदाई में तो तीये छत्तीस रहते ।
तिरेसठ हों जब हो दया संघठन की॥ ४ विजय वादशाहों पै पाता है एका।
सुनी हाट होती कहीं संघठन की। ५ कठिन से कठिन काम सहसा सफल हो ।
बदौलत इसी एकता संघठन की। ६ खतरनाक हालत में है रोगी भारत ।
मिला दो अमर बस दवा संघठन की।
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[ ३७ ] मूर्खमन
मूर्खमन ! कब तक जहाँ में अपने को उलझायेगा। ध्यान श्री जिनराज के चरणो में कबतू लायगा ? ॥ध्र.
भूलकर निज लक्ष को, जड़ भूतका चेरा बना। क्या इसी भ्रम कल्पना में, तू खुदा बन जायगा ॥
धर्म का धन छोड़कर पूजी बटोरी पापकी। ढौंग के वल कब तलक धर्मात्मा कहलायेगा ?।। दीन को दाना न देता हज्म करता सब स्वयं । जायगा परलोग में तो तू वहां क्या खायगा ? | जब की तू होता नहीं औरों के संकट में शरीक । कोन शठ तुझ को यहां फिर प्रेम से अपनाएगा ? ॥ बन्दरों को भी उछलते कूदने में मात दी। मानवी रंग ढंग में कब अपने को तू ठहरायेगा । जोड़ नाता वीर से ले शान्ति की धूनी रमा । अन्यथा पाखण्ड में फंस कर अमर क्या पायेगा? ॥
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[ ३८ ]
आज के साधु ? . पूर्वजों की और कुछ ना, लक्ष लाते आज कल । साधुता के नाम पर छल छन्द रच ते आज कल ॥ध्र . १ जानते तक भी नहीं प्राकृत गिरा क्या चीज है ।
मात्र टब्बों से जिनागम तत्व पाते अज कल ।। २ पौरुषी तक भी न होती है खुल्ले काल में।
दो - दो माह चौमास में तप रंग जमाते आज कल ॥ ३ क्या करें अध्ययन का अवकाश कुछ मिलता नहीं।
घण्टो बैठे भक्त से बातें बनाते आज कल ॥ ४ सूत्र लेके हाथ में गाते कपाली और गजल ।
चट पटे किस्से सुना, श्रावक रिझाते आज कल ।। ५ वीनती चौमास की मंजूर झट होती नहीं।
खर्च का चिट्ठा बना पहले दिखाते आज कल ।। ६ जैन संस्कृति का भला उद्धार हो क्यों कर अमर ।
जब की नैया को खिवैया ही डुवाते आज कल ।।
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[ ३६ ]
श्री राम तर्ज-तोहिद का डंका आलम में बजवा दिया कमली वालोने श्री राम सा अन्य विदेशो में नर पुंगव कोई हुआ ही नहीं। देखें इतिहास सभी जग में इस कोटिका कोई हुआ ही नहीं
॥ ध्र. ।। १ बनवास लिया नहीं राज्य लिया ऋण मुक्त किया अपने
पितुको। समझाया सभी ने बहुतेरा निज प्रण से, किन्तु हटा ही
___ नहीं । २ सस्नेह सुधा ज्यों शबरी के बदरी फल झूठे खाये थे। पतितों के रहे अति ही प्रेमी, कुछ भेद का भाव रहा ही
नहीं। ३ सौन्दर्य वती अति शूर्पनखा, आई थी स्वयं पत्नी होने । फटकार दई नव यौवन में, तिल मात्र भी चित्त चला ही
- नहीं ॥ ४ दुःख भूल गये अपना तो सभी, सुग्रीव का संकट दूर किया। पर दुःख में अपने सुख दुःख का, कुछ भान कदापि रहा ।
ही नहीं। ५ अति प्रेम के साथ विभीषण को, दे आश्रय लंका राज्य
दिया। शरणागत के प्रति शत्रु या मित्र, यह तुच्छ विचार किया
ही नहीं। ६ प्राणों से पियारी सीता को बनवास दिया नहीं देर करी। आदर्श प्रजा - भक्ति का अमर इस जैसा कोई मिला ही
नहीं। ॥ इति. ॥
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[ ४० ]
सती सीता
तर्ज-बढ़ा दे आज की शब और चखें पीर थोड़ी सी हमारे हिन्द में सीता सती कैसी हुई देखो
न ऐसी अन्य देशो में कहीं पर भी हुई देखो ॥ टेह. ॥ १ सभी सुख छोड़ महलों के भया वह शून्य अटवी में । पती के संग पैदल ही मुदित मन से गई देखो ।
२ रही वृक्षों के नीचे और पहन एक बसन कैसी
३ चुराकर ले गया रावण, हहा जालिमने दिलं भर,
नीरस पत्र फल खाये फकीरी ले लई देखो ||
सतोव्रत भंग करने को यातनाएँ भी देई देखो ।
४ उसी की कैद में रहकर, उसी को ही निडरता से । कहे कटु वाक्य कामी, खर, अधम निर्लज्ज इसे देखो ।
५ दिखाया सत्य बे खटके, अनलके कुण्ड में कूदी हुआ ट शीत जल - झरना, अलौकिकता नई देखो ।
६ बनेंगी नारियाँ जब यहाँ सती सीता सी अब फिर से तभी भारत अमर होगा अखिल भूतल जमी देखो ।
नारलोल पोष १६७६
॥ इति. ॥
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. [ ४१४]
दानवीर भामाशाह तर्ज-मेरी इमदाद को ऐ वासुरी वाले आजा मातृ भूमि को कोई दुःख से बचाए क्यों कर ओ ! वीर भामाशाह तेरी याद न आये क्यों कर ॥ध्रु.॥. १ तूने ही राणा को आके दी तसल्ली अच्छी तरह ।
दुःख में किसो को कोई, धीर बंधाए क्यों कर । २ तू ही था शैदा वतन का कर दिये खजाने खाली ।
वतन के खातीर कोई, धन को लुटाए क्यों कर ।। ३ बनिया होकर भी न तूने, कुछ करी धन की परवाह ।
वक्त पै दिल को कोई दरिया बनाए क्यों कर ।।
. ४ तू लाल था जैन कौमका तेरा यश है अमर है अबतक । कौम अपनी को कोई जग में दिपाये क्यों कर
कल्याणपुर ॥ आषाढ १९७६
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[ ४२ ] रामायण के आदर्श तर्ज मेरे मौला मदीने बुलाले मुझे। रामायण के नरोत्तम जगाते हमें
अपने गौरव की याद दिलाते हमें ।। टे. ।। १ राज्यपद ठुकरा दिया वह जंगलो में चल दिया तात की प्रणपूर्ति को जो चाहिये था कर दिया
गुरुजन - पूजा यूं राम दिखाते हमें । २ राम केवट से मिले सस्नेह बाँह पसार कर
भीलनी के वैर झूठे खाए खूब सराह कर
. . छोटों से भो यू प्रेम सिखाते हमें ।। ३ भ्रात का संग दुःख में छोड़ा नहीं वनमें रहा,
मुंह नहीं उपर उठाया, जानकी चरणों रहा, __ लक्ष्मण भाई के लक्षण जिताते हमें ।। ४ प्राण की वाजी लगाकर लंक गड़ में जा बड़बड़ा .. शोध सीता की करी यह काम था कैसा कड़ा।
सेवाः पथ पर यूं हनुमत चलाते हमें ।। ५ स्याज्य है यदि बंधु भी अन्याय के पथ पर चले पूज्य है यदि शत्रु भी पथ न्याय से न जरा टले ।
करके खुद ही विभीषण बताते हमें ।। ६ स्वाभीमानी वीर लवकुश मातृ भक्त वने अमर भातृ प्रेमी भरत ने भी कुछ नहीं रक्खी कसर नश्वर जग में अमर ये बनाते हमें ।।
गोकुलगढ़ वैशाख १९९१ ॥ इति.॥
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[ ४३ ]
संप
तर्ज पंजाबी हो जावो हो जावो कुनि देशकी रक्षा पर। सब मिल आजावो-२ इकवार संप की छाया में ॥ध्रः॥ जिनमें संप सदा रहता है, उनके नित्य पड़ा रहता है
... चरणो में संसार ।। १ ॥ फूट पुजारी जो होते हैं वे निज गौरव सब खोते हैं ।
. पाते हैं धिक्कार ॥२॥ दुर्बल जन ही संप सहारे, बन जाते हैं वीर करारे ।
संप सदा जयकार ॥ ३ ॥ दीन पतंगे यदि सब मिल के कूद पड़े. दीपक पै उछल के
.. करे छिनक में छार ॥ ४ ॥ .... निर्बल तार परस्पर मिल के, महावली गजराज जकड़ते
निज बन्धन में डार ॥ ५ ॥ बूंद-बूंद मिल दरिया बहते, नहीं किसी के रोके रहते ।
होता अति विस्तार ॥ ६ ॥ कैचा की वद आदत छोड़ो अमर सुई से नाता जोड़ों
सुखी बनो नर नार ।। ७ ।। फालगुन नारनोल १९७६
॥ इति ।
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[ ४४ ]
ब्रह्मचर्य तर्ज-कौन कहता है कि जालिम को सजा मिलती नहीं संसार में सर्वत्र इक यह, ब्रह्मचर्य प्रधान है
अस्तित्व नर का है यही, सब आश्रमों की जान है ।।टे.॥ १ बल बुद्धि विद्या वैभवादी का यह मूल श्रोत है,
सादर सभी धर्मों में इसका, हो रहा गुण - गान है ? २ चिर आयु अब होती नहीं, क्यों बाल व्याह का राज्य है
व्यभिचार सेवी पशु यहाँ चन्दरोज का महमान है। ३ जो आज कहलाते युवा वे वृद्ध से भी वृद्ध है।
मुख पर पड़ी है झूरियाँ कटि झुक रही ज्यो कमान है। ४ जब खोखली जड़ हो गई कैसे विटप फूले फले,
व्यभिचारियों की होती अति निर्बल विकल संतान है। ५ हा ! भीष्म से योद्धा भला, अव देश में होते कहाँ, __ मजनू बनें लाखों फिरे पद-पद अमित अपमान है। ६ अव ब्रह्मचर्य विहीन भारत दीन - से - भी हीन है,
संसार का गुरुराज अब तो हो गया हैवान है। ७ यदि पूर्वजो सा प्राप्त करना है अमर गौरव तो फिर,
व्रतराज के वनिये व्रती जग में इसी का मान है।
--(०)
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[
४५ ]
महाभारत क्या शिक्षा देता है चाल-शिक्षा दे रही जी हमको रामायण अति भारी शिक्षा दे रहा जी हमको, महाभारत हितकारी ॥ ध्र. । १ पितृ भक्ति करने में करदी हद भीषमने भारी ।
राजपाट सब तजकर बन गये, धन्य वाल ब्रह्मचारी ? २ एक लव्य ने करदी सारे शिष्यो में वेदारी,
अपना अंगूठा काट द्रोण को, भेट दई अतिभारी । ३ जूवा खेल युधिष्ठिर जीने अपनी बात विगारी,
राज्य घर सब हारे भाई, हारी द्रोपदी नारी ॥ ४ अत्याचार किया द्रोपदी पै दुर्योधन ने भारी ।
जलदी ही फल दिया जुल्मने कोख कुल संहारी ।। ५ कष्ट पड़े पर सत्य धर्म की करता है रखवारी।
सत ही द्रोपदी की लज्जा राखी सभा मँझारी ।। ६ परोपकार निःस्वार्थ सिखाती, कुन्ती माता प्यारी
ब्राह्मण के बदले राक्षस के भेजा सुत सुखकारी ।। ७ दुष्टो की संगति से बिलकुल जाती है मतिमारी।
कौरव संग भीषमने गायें चोरी विराट मंझारी । ८ सुलह कराने खातीर सज्जन करते कोशिस भारी।
पांडव कौरव वैर मिटावन बन यये दूत मुरारी ।। है प्रेम भाव में छोटे बड़ों का भाव न रखो विकारी।
रण में अर्जुन का रथ हांका खुद ही कुंज विहारी ॥ १० गृहस्थ धर्म पालन कर पांडव हो गये मुनि व्रतधारी। धर्म शूरमा बनकर बन गये, अमर सदा अधिकारी ।।
हिसार १९८७ चातुर्मास
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[ ४६ ]
प्रभू भक्ति
तर्ज- जिसको न अपने देश का निज जाती का अभिमान जगदीश के पद पंकजों में नित्य शीस झुकाइये आनन्द परमानन्द फिर तद्रूप होकर पाइयें ।। टे. 11 १ संसार के सुख भोग तूफानी समन्दर है अतः । प्रभू नाम नौका में मजे से बैठ कर तर जाइये ॥ २ चिरकाल से दुःख देते आये हैं प्रबल कर्मों के फल । भगवान भजन तलवार से, कुहराम इनमें मचाइये || ३ प्रभू के बताये मार्ग पर चलना ही प्रभु की भक्ति है । अतएव शम दम को हृदय के भाव से अपनाइये ||
¿
४ मत मतान्तर के बखेडों में धरा क्या है अमर । आदर्श मत अपना तो केवल ईश- भक्त बनाइये ||
भक्ति आश्रम रिवाडी
बैशाख १६६१
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[ ४७ ] चण्ड कौशिक का उद्धार (महावीर वाणी)
तर्ज-संग दिल गल जायेंगे मुझको जरा रोने तो दो मैं नहीं ठहरूंगा हगिज मार्ग मेरा छोड़ दो।
बन्धुओं ! मेरी तरफ की व्यर्थ चिता छोड़ दो ।। ध्र. ।। १ स्वप्न में भी भय के मारे भीत मैं होता नहीं।
मैं तो भय का भी हूं भय हा-हू मचाना छोड़ दो। २ मौत मेरे सामने कर जोड़ थर - थर काँपती।
- मैं मदारी मौत का झूठा डरावा छोड़ दो। ३ अग्नि जल विष शास्त्र इनका देह तक संबंध है।
आत्मा तो अखण्ड अविनाशी है आगा छोड़ दो। ४ हम मुनि है स्थूल दुनियाँ से निराला मार्ग है।
मृत्यु में जीवन है लेना अपनी बाधा छोड़ दो। ५ जो तुम्हारा सर्प है हो मित्र है मेरा वही ।
मित्र के मिलने में देरी यो लगाना छोड़ दो। विश्व हित के अमर पागल बना फिरता ही हूं मैं । देखना होता है क्या ध्येय से डिगाना छोड़ दो।
. महेन्द्रगढ़ वीर जयन्ति
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[ ४८ ]
देवियों !
तर्ज कह रहा है आसयाँ यह सब समा कुछ भी नहीं देवियों, कुछ ध्यान अपने पर नहीं लाती हो तुम । खो दिया गौरव सकल, अब किसपे इतराती हो तुम ॥ध्रु सास पेठनती लड़ाई खाने को टुकड़ा नहीं । कुगुरु को माल ताजा रोज चढ़वाती हो तुम ॥ २ जेठ सुसरों से पर्दा कौठे पे घुस बैठना । पूछे पे उत्तर न विलकुल, गूंगो बन जाती हो तुम || ३ फेरी वाले छाकटे लुच्चे विसानी को बुला । खूब हँस-हँस बात करती हो न सकुचाती हो तुम || ४ हो गया बच्चा जरा बीमार बस मस्जिद चली । खेद है गुण्डों से उसके मुँह में थुकवाती हो तुम ॥
नाक में है दम पतीका जेवरों
की मांग से ।
खाते पीते वक्त बड़ - बड़ करके दुखयाती हो तुम ॥
५
६ लद लदा कर रेशमी वस्त्रों व गहनों से अमर । मेलो में गुण्डो के धक्के खाने क्यों जाती हो तुम ॥ नारनोल
१० सितम्बर १९३६ ॥ इति ॥
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[ ४६ ]
महावीर चरणों में महावीर जगस्वामी तुमको लाखो प्रणाम ।।ध्र. १ अन्तर में वर करूणा जागी, देखा भारत अतिदुःख भागी
वैभव की दुनियाँ त्यागी, तमको लाखो प्रणाम २ दैत्यों का दल वल चल आया, उत्कट संकट घन बरसाया,
लेश मात्र ना मन हिर्राया तुमको. । ३ सर्प चण्ड कौशिक फुकारा उग्र दंश चरणों में मारा
समझाया प्रेम पियारा, तुमको. ४ बारह वत्सर बन-बन डोले, सब बिचार आचार में तोले,
जनता में फिर खोले । तुमको. ५ दुराचार पाखण्ड हटाया, सदाचार पाखण्ड हटाया,
धर्मो का द्वन्द हटाया । तुमको. ६ अटल दुर्ग पशु बलि का तोड़ा, जातिवाद का कंठ मरोड़ा
पतितों से नाता जोडा । तुमक. ७ देव तुम्हारी महिमा भारी, अमर विश्व की दशा सुधारी त्रिभुवन के मंगल कारी। तुमको.
संगी का से
ति. ।।
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[ ५० ] भगवान महावीर ने क्या किया? सद् धर्म का डंका भारत में बजवा दिया वीर जिनेश्वरने और उजड़े भारत को फिर से, सरसा दिया वीर जिनेश्वरने
॥ ध्र. १ पशुओं जैसा शूद्रों से व्यवहार यहां सब करते थे।
पर प्रेम से सबको एक जगह विठला दिया वीरजिनेश्वरने २ पुरुषों के पैरो की जूती, महिलाएँ समझी जाती थी।
पुरुषों से नहीं है कम महिला, बतला दिया वीरजिनेश्वरने ३ देवी देवों के आगे यहां, खून के दरिया बहते थे।
सर्वत्र अहिंसा का झंडा लहरा दिया वीर जिनेश्वर ने । ४ एकान्तवाद के झगड़ो में पड़ सब मतवाले लड़ते थे।
स्याद्वाद के द्वारा सब झगड़ा, मिटवा दिया वीरजिश्बरने ५ पावापुरी में यज्ञों की, जब धूम मची थी अतिभारी । । तब गौतम जैसे पंडित को समझा दिया वीरजिनेश्वर ने । ६ झूठे रीति रिवाजो में, सब धर्म समझकर बैठे थे। __ सद्धर्म का मारग सब जन को,दिखला दिया वीरजिनेश्वरने ७ आत्मा में अनन्ती ताकद है, यह परमत्मा बन सकती है, मानव से अमर ईश्वर होना, बतला दिया वीरजिनेश्वरने
संगीतिका से ।। इति. ॥
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[ ५१ }
जय जिनेन्द्र जय जिनेन्द्र ! विनम्र वंदन पूर्णतः स्वीकार हो दीन भक्तों के तुम्हीं, सर्वस्व सर्वाधार हो ॥ध्र . १ मोह मद मायादि दोषों से प्रथक हो सर्वदा
शान्ति समता सत्य के गुण सिंधु अपरंपार हो । २ देखते हस्तामलक सम, ज्ञान से भुवनत्रयी,
सूर्य से भी अनन्त ज्योतिवंत ज्ञानागार हो । ३ आपकी मंगलमयी करूणा सुधा से शीध्र ही,
पूर्ण परमानन्द हो भव दुःख का संहार हो । ४ धर्म पर मरना सिखाता आपका आदर्श ही,
धर्म के और धर्मवीरों के तुम्हीं श्रृंगार हों। ५ धर्म की जग में ध्वजा लहराए जय जय नाद से। .. हममें ऐसा उग्रतम, बल बुद्धि का संचार हो । ६ एकता के सूत्र में गुथ जाय जैन समाज सब प्रेम झरने का अमर प्रतिपल अमित विस्तार हो
संगीता से
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[ ५२ ]
प्रशस्त प्रार्थना दर्शन प्रभो दिलाना शिवपुर बसाने वाले,
दिल में सदा समाना कलिमल नसाने वाले ॥ध्र. १ गहरा अंधेरा छाया हूँढा न मार्ग पाया,
दीपक जरा जलाना, तमको मिटाने वाले। २ सोये पड़े हैं सब जन, आलस्य में है तनमन ।
इस नींद से जगाना त्रिभुवन जगाने वाले । भव पाश में फंसे हैं सब और से कसे हैं। भ्रम - भाव से छड़ाना बंधन छड़ाने वाले । माया की मन्त्रणा में पशु है कुयन्त्रणा में। मानव अमर बनाना मानव बनाने वाले
संगीतिका से
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४
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[ ५३ ]
प्रतिज्ञा
प्रभो वीर तेरा ही सुमरन करूंगा जगत में तेरे गीत गाता फिरूंगा ॥ध्रु.
१ चलूँगा सदा तेरे बतलाए पथपर । कदम एक तिलभर न पीछे धरूँगा ॥ २ अटल सत्य का मर्म लोगो से कहते । किसी भी न डर से जरा भी डरूंगा ॥ ३ रहूंगा अटल धर्म रक्षा के खातिर । बड़े हर्ष के साथ हँस हँस मरूंगा ।
४ तड़पता है कष्टो से सारा ही भारत । सभी द्वेष क्लेशों की पीड़ा हरूंगा ॥
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५ अविद्या के करण बने नर पशू से हृदय में अमर ज्ञान बिजली भरू गा ॥
संगीतिका
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[ ५४ ]
अहिंसा की प्रधानता अहिंसा ही दुनियाँ में सबसे प्रवर है। नहीं मित्र ! इसमें जरा भी कसर है । ध्र . अहिंसा के आगे झुके विश्व सारा,
अहिंसा में कैसा विचित्र ही असर है । २ असंभव नहीं कोई वस्तु वशर को,
सभी कुछ हो संभव अहिंसा अगर है। ३ अहिंसा से मिलती है सुख शान्ति सच्ची,
अहिंसा ही मुक्ति की सीधी डगर है । ४ अहिंसा से बल आत्मा का बढ़ा दो।
अहिंसक ही दुनियां में रहता निडर है ।। ५ अहिंसा है भयभीत मनको निशानी,
जो कहते हैं उनको न कुछ भी खवर है। ६ नहीं है अमर कोई वस्तु जहाँ में, अमर यह अहिंसा तो देशक अमर है ।।
संगीतिका से
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_ [ ५५ ]
जीवन संग्राम ! जोवन का रण क्षेत्र है. उठो करो तैयारियाँ
सोते पड़े हो क्यों बृथा, ले रहे हो अंगड़ाइयां ॥ध्र. १ भूलो न सब कुछ है यही पर जन्म की भी हो फिकर
रहती कभी सदा नहीं मिठी - मिठी मिठाइयाँ । २ छोड़ो सभी बुराइयां जीवन पवित्र लों बना,
वरना नरक में सड़ना है, मुंह पै उडेंगी हवाइयाँ ।। ३ आये हो मानव लोक में कुछ तो भलाई कर चलो।
जिंदा रखेगी मरे पै भी, तुमको तुम्हारी भलाइयाँ ४ दीनों की रक्षा के लिए, सर्वस्व की भी भेंट दो
खोलो खजाने ! कब तलक बांधे फिरोगे चावियां ? ५ पूर्ण मनुष्य बन जावो तुम देवगणों के भी प्रभू । दुर करो सभी अमर जो है हृदय की खामियाँ ॥
संगीतिका से
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[ ५६ ]
अनेकान्त दृष्टि १ सरिता तट वर्ती नगरों में रहता है आराम अपार
किन्तु बाढ़ में वही मचाती, प्रलय काल सा हाहाकार २ अग्नि कृपा से चलता है सब पाक आदि जगका व्यवहार
किन्तु उसी से छिनभर में हो भस्म-राशी होता घरवार ३ सघन जलद सूखी खेती में, करता नव जीवन संचार
वही पलक में कृषक काल हो करता हाय सर्वं संहार । ४ विषलव अणुसा भी दिखलाता, यमपुर का झट रोद्र द्वार
किन्तु बचा दुःसाध्य रोग से बने कभी जीवन दातार ५ भला बुरा एकान्त जगत में कोई न देखा आँख पसार अखिल सृष्टी गुण दोषमयी है,किससे करे द्वष या प्यार
संगीतिका से
साल
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[ ५७ ]
पाप का फल
पाथ कृत हरगीज ना खाली जायेगा
वक्त आनेपर गजव रंग लायगा ॥ ध्रु..
१ क्या जवानी के नशे में झूलता चामके मृदु रंग पर क्य फूलता । फूलसा सौन्दर्य झट मुरझाएगा ?
२ स्वार्थ वा परिवार का मेला लगा कष्ट में साथी सभी
आके फिर कोई न मुख
३ मौत सर पर एक दिन मंडरायेगी ताकते दुनियाँ की सब चकरायेगी । लाड़ला तन खाक में मिल जायेगा ||
देंगे दगा
दिखलायेगा ||
४ दैत्य पति रावण तड़प कर मर गया, अपने पापों का मजा वह चख गया, बाद वदफेली से नर मर जायगा ॥ ५ पापकी बदबू कभी छिपती नहीं, आग रूइ में कभी छिनती नहीं ।
ढोल अपयश का खुला पिट जायेगा । ६ धर्म हो जग में अमर इक सार है, जिन्दगी इसके बिना निःसार है । साथ परभव में यह वस इक जायगा
संगीतिका से
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[ ५८ ]
कलयुगी मित्र ! जमाने हाल में कैसा भयंकर फेर आया है
जहां मैं मित्रता के नाम पर अंधेर छाया है ॥ध्रु. १ जहां चांदी भवानी की छना - छन है तिजोरी में
वहां झट मित्र दलने कूद द्रढ़ आसन जमाया है । २ पड़ी जब आफते भारी, फंसा हत भाग्य गदिश में
बनी के चार सब भागे न टूडे खोज पाया है। ३ सुबह बाजार में घूमें परस्पर डाल गल बाहें ।
दुपहरी में जो विगड़ी शाम को बारंट आया है। जरा भी गुप्त कोई बात गर निज मित्र की परचें
करे बदनाम खुल्ला, ढोल गलियों में बजाया है। ५ भलाई ऐसे मित्रों से अमर क्या खाक होवेगी वचन मन में कि जिनके रात दिन सा भेद पाया है
संगीतिका से
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[ ५६ ]
व्यर्थ जीवन गजव करते हो ये भारी वृथा जीवन गवाते हो नहीं कुछ सोचते दिल में योंहीं आफत उठाते हो ॥ध्र. १ किसी पुरुषार्थ के बल से मिला है जन्म नर तुमको,
विषय भोगादि में फंसकर क्यों सिंधू में डुवाते हो। २ जरासी जिन्दगानी पर हुए हो क्यों दिवाने तुम,
भला छल छंद रच क्यों दीन जीवों को सताते हो । ३ हिला गर्दन विकल मुंह कर महा वैराग्य में आकर
बड़ा अफसोस शिक्षा तुम सदा सबको सुनाते हो। ४ दयामय धर्म उत्तम है गहो इसको मेरे मित्रो तजो यह दुर्गति नारग अमर तुम जिसको चाहते हो
संगीतिका से
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ताल
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[ ६० ] सिद्ध वन्दन
दयामय सिद्ध - प्रभूजी का हृदय में ध्यान लाते हो अमल आदर्श के द्वारा अलौकिक शान्तिपाते हो ॥ध्रु. जगत भूषण विगत - दूषण अखण्डानन्द अविनाशी,
जरा और मृत्यु के दुनियावी चक्कर में न आते हो। २ विकटतम क्रोधमद माया, तथा लोभादि रिपुजीते।
जलाकर रागद्वेषांकुर विशुद्धात्मा कहाते हो। ३ तुम्हारे रूपकी तुलना किसी से हो नहीं सकती।
चराचर विश्व के सब दृश्य तुम से मुंह छिपाते हैं । ४ पहुंच तन तक नहीं हो सकती मनकी और वाणी की,
लड़ाकर तर्क पर तर्के विबुध सब हार जाते हैं। ५ विलक्षण ज्ञान लोचन से तथा दृढ़ ध्यान के बल से ।
तुम्हारा रूप तो योगिन्द्र ही लखते लखाते है। जगत वन्दन जगत के नाथ जीवन भव्य जीवों के,
हठीले भक्त को भगवान अपना सा बनाते हैं। ७ तुम्ही हो मुक्ति के दाता, तुम्ही हो कर्म के धाता, दया दीनों पै कुछ करना अमर आशा लगाते
संगतिका से ॥ इति. ।।
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[ ६१ ] सत्य पुरुषों का संग करो तर्ज-कर पाखण्ड का त्याग रे तेरी अच्छी बनेगी कर संतन का संग रे, तेरी अच्छी बनेगी अच्छी बनेगी तेरी अच्छी बनेगी ॥ध्र. ।। १ संतन की महिमा है भारी, संत है निर्मल गंगारे ।।
मोह अंधेरा दूर हो सारा, करने से सत्संगरे । २ सत् संगति से पाप गली नीत, होती जाती है तंगरे ।
लाखो प्राणी सत्संगति से तिर गये कर भव भंगरे ।। ३ संतो की संगत से अपने करले अच्छे ढंगरे ।
सत्संगति कर यदि कर्मों से करना है अब जंगरे । __४ अमर हमेंशा सत्यसंगति का, रखना दिल उमंगरे ।
हिसार १९७७ चातुर्मास
०९०.00
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[ ६२ ] . विद्या के ऊपर दो मित्रों का संवाद नरेन्द्र-मत विद्या पढ़ो मत विद्या पढ़ो
पढ़कर के विद्या को दुःख में पड़ो। सुरेन्द्र-आवो विद्या पढ़े आवो विद्या पढ़े
पढ़कर के विद्या को ऊँचे चढ़े ॥ नरेन्द्र-गलियों में जूती छिटकाते-फिरते विद्यावान
बीस तीस का वेतन लेकर, खोते दीन ईमान सुरेन्द्र-अध कचरे ही मूरख फिरते, फिरे न विद्यावान
आलिम तो दौलत को ठुकरा रखते दीन ईमान ।। नरेन्द्र-विद्या पढ़ने वाले होते लुच्चे और लवार
करन धरन को एक नहीं पर बाते करें हजार ।। सुरेन्द्र-पूरे पक्के अपने प्रण के होते है विद्वान
पूरा करके ही दिखलाते जो कुछ कहे जवान ।। नरेन्द्र-आलिम फाजील लाखों फिरते, टुकड़े से लाचार
धनि को आगे सीस झुकाते करते जीजीकार . सुरेन्द्र-विद्यावान कभी ना होते किसी तरह लाचार
. आलिम की नित सेवा करते बड़े-बड़े सरदार ।। नरेन्द्र-मित्र ! ठीक है कहना तेरा करता हूं स्वीकार अमर पढूगा विद्या में अब करके यत्न अपार महेन्द्रगढ़ १९७८ चातुर्मास आवो
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[ ६३ ] विद्या की आवश्यकता चाल कौन कहता है कि मैं, तेरे खरीदारो में हूं। कौन कहता है कि विद्या लाभ पहुचाती नहीं ।
वक्त आने पर कभी क्या काम यह आती नहीं ॥ ध्र. १ ज्ञान ही का फर्क है इन्सान और हैवान में।
है पशु वे भी वशर विद्या जिन्हें भाती नहीं। २ दूर देशों में जहाँ कोई न अपनी जान का, . क्या सुविधा उस जगह सत्कार करवाती नहीं। ३ मूर्ख को मैने कहीं पर भी कदर देखी नहीं।
जगमगाती रत्न ज्योति कांच में पाती नहीं। ४ प्रेम भाव प्रसारिणी वर वस्तु इस संसार में,
कोई विद्या के सिवा हमको नजर आती नहीं। ५ खून पसीना एक कर चाहे अमर जाकर कहीं।
किन्तु विद्या बिन कभी यह दीनता जाती नहीं।
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[ ६४ ]
मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त चाल-तोहिद का डंका आलम में बजवा दिया कमली वालोने भारत में डंका गैरो का अब मै न कभी बजने दूंगा भारत में भारत शत्रु को, अब मै न कभी टिकने दूंगा ॥ध्र. १ तुम कुल भारत के दुःष्मन हो, फिर नंद पे कैसे ले जाबु
एक ईंट के खातिर मंदिर को, मै न कभी टूटने दूंगा २ मैं खुद ही नंद से लड़कर के, अपना पद वापिस लेलूगा
लेकिन गैरो के हाथों से भाई को नहीं मरने दूंगा ३ मैं मौर्य वंशी क्षत्री हूं सब चाले तुम्हारी समझ हूं
इम्दाद तुम्हारी लेके तुम्हारा, काम नहीं बनने दूँगा . ४ तुम योद्धा नहीं लटेरो हो, भारत को लटने आये हो।
पर याद रखो मैं जीते जी, भारत को नहीं लुटने दूंगा
मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त, जैनाचार्य भद्रबाहु स्वामीजी का . गृहस्थ शिष्य था, सौलह वर्ष की अवस्था में यह झेलम नदी के तट पर यूनान के बादशाह सिकन्दर से मिलने गया उस समय सिकन्दर के ऐसा कहने पर कि "ऐ चन्द्रगुप्त तेरे शत्रु नन्द को मारकर तेरा राज्य तुझको दिला हूँ" तब चन्द्रगुप्त ने जो जबाब दिया वह इस पद में अंकित है ।
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[ ६५ ] एक जन माता का सच्चा जैनत्व बुढिया माँ ने आशा साह को क्या कहा ? तर्ज--सखी सावन बहार आई झुलाये जिसका जी चाहे अरे आशा ! इसे आशा बंधाना ही मुनासिर है।
शरण में आये को अब तो, बचाना ही मुनसिब है ॥ध्र.. १ पड़ा किस सोच में बेटा ! नहीं है सोच का मौका,
समझ ले अब तो जैनी पद निभाना ही मुनसिब है । २ जरा तू देख तो हिम्मत भला इस धाम पन्ना की,
तुझे भी इसकी हिम्मत अब, बढ़ाना ही मुनासिब है। ३ तेरे पर आयेंगे संकट बड़े भारी मैं मान हं,
धरम के वास्ते संकट उठाना ही मुनासिब है। ४ बने सब भोरू महाराजा किसी ने भी नहीं रक्खा,
सबक उनको दिलेरी का सिखाना ही मुनासिब है। ५ अमर रखले उदयसिंह को तू अपने पास वेखटके, हुकुम मेरा तुझे अब यह बजाना ही मुनासिब है।
महेन्द्रगढ़ १९८७ चातुर्मास + +
+ बनवीर के मारे जाने के डर से बालक उदयसिंह को लेकर धाय पन्ना सब राजाओ के पास गई लेकिन आश्रय देने में सबने अपनी असमर्थता प्रगट की। अन्ततः कमलमीर दुर्गाध्यक्ष जैन वीर आशा साह के पास पहुंची। बुढ़िया माता के कहने से उदयसिंह को आश्रय दिया ! धन्य शरणागत रक्षिका धन्य।
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. [ ६६ ]
सत्य धर्मना जावे तर्ज-(पंजाबी ) मेरा रंग दे बसन्ती चौला सर जावे तो जावे-मेरा सत्य धर्म ना जावे ॥ध्र. १ सत्य की खातिर वीर कष्ट सह भारत प्राण बचावे, २ सत्य के खातिर खुश हो सीता कूद अगनिवीच जावे । ३ सत्य के खातिर सेठ सुदर्शन, सूली पर चढ़ जावे। ४ सत्य के खातिर राय युधिष्ठिर राज छोड़ बन जावे। ५ सत्य की खातिर हरिचन्द्र राजा, भंगी के विक जावे। ६ सत्य की खातिर खंदक मुनिवर तनकी खाल उतरावे। ७ सत्य की खातिर निकलंक अपना, सीस सहर्ष कटावे ॥ ८ सत्य धर्म से कभी न मेरा चित्त यह डिगने पावे । है सत्य धर्म धारण करने से अमर अमर हो जावे।
चातुर्मास १९८७ हिसार
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. [ ६७ ]
मास खाना महापाप है तर्ज-चाचा दोडियोरे चूही काटन आई
मांसाहार सेरे, क्यों ना तुम शरमाते ॥ध्र. १ मांस भखन से पाप होता है जन्म जन्म दुःख पाते,
आगम - वेद - कुरान - वाईवल सबके सब बतलाते । २ अपने यदि कांटा भी लगे तो वे सुध हो चिल्लाते,
लेकिन निर्दई बन पशुओं पे खट खट छरा चलाते।। ३ मूत्र बिन्दु लग जावे कहीं तो घिन से नाक चढ़ाते ।
किन्तु उसी के अण्डे छीं - छी कैसे चट कर जाते ।। ४ बन गुलाम रसना के कैसे जोर जुल्म तुम ढाते । - अनगिन मुर्दे रख के पेट में कवरिस्तान बनाते ।। ५ समझो - समझो अबतो समझो अमर तुम्हें समझाते, छोड़ो मांस का खाना यदि तुम्हें अपने को सुख चाहते।
हिसार १९८७ चातुर्मास
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३००.००
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[ ६८ ]
मादक द्रव्य परिहार, मद्य निषेध
मदिरा पापन ने रे, दीना देश बिगार
भारत सारा पागल कीना - शैतानी से बस में कीना पढ़े लिखों को उल्लू कीना-- फैला धुप अँधियार - म. २ बूढ़े खूसट प्याली पीते - नोजवां इसही से जीते दूध मुँहे भी रहे न रीते - फँसी. इसी में नार - म. ३ पापन पूरा जाल बिछाया - सबका असली जोश घटाया झूठा जोश चढ़ा मरवाया - किये मनुष दुम दार-म. ४ दीन ईमान सभी का खोया -बुरी तरह से हिंद डुबाया भाई को भाई से खोया-खोये सब ५ चेहरे सब के कर दिये फीके - रोगी कर रिपु कर दिये जिंदे यम के दीवे जल रहे घी के - भीड़ लगी दरबार - म. ६ बढ़ रही दिन दूनी बेकारी - मूरख बन रही जनता सारी छार ही मक्कारी बदकारी - फैल रहा व्यभिचार - म. चाहते अगर निजलाल बचाना - भारत को आजाद बनाना तो अब इसका खोज मिटाना -- कहत अमर ललकार - म. हिसार १९८७ चातुर्मास
घरबार - म.
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[ ६६ ]
मतना पीना नशैली तमाखू कभी
मत ना पीना नशैली तमाखू कभी देती सुख ना जरा यह तमाखू कभी ॥ध्रु. १ जहर होता है भयंकर, इस तमाखू में सुनो नाम जिसका है निकोटायिन, हकीकत सब सुनो
ज्यादह पीने से प्राणी को मारे कभी म. २ खून हो जाता है पतला, डाग पड़ते सीने में फेफड़े कमजोर हो जाते, हो संशय जीने में
करती सूखा दिमाग तमाखू तभी म. रोग होते हैं अनेकों जिनकी कोई हद नहीं आँख पीड़ा पेट पीड़ा, मंदता होती सही
पूरे डाक्टर हैं, जो वे बताते सभी म. नष्ट हो जाती है मति कमजोर होती धारणा होते हैं पागल भी इससे बात तुम सच मानना चक्कर आते हैं पीत शुरू में नभी म. ५ देश की पूरी रकम, बरबाद इसमें हो रही धर्म भी सारे अमर निन्दा करें क्यों भारही
मतना देरी करो छोड़ो सारे अभी म.
मु, खरद १६८८ चैत्र
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[ ७० ]
गो-रक्षा करो
१ हिन्दुओं अब पूर्वजों के राह पर चल दीजिए सौख्य चाहो तो सदा गोवंश पालन कीजिए रात दिन जाती है मारी यहाँ बिचारी गाय हो
२
गौर करता है न कोई इनकी कुछ सुध लीजिए ३ सामने देखो तुम्हारे रक्त नदियां बह रही देखते हो क्या दयालू बन्द यह बध कीजिए पालना करती तुम्हारे जो सकल परिवार की
वृद्ध पनमें कातिलों के हाथ में मत दीजिए
५ दूध घी दुर्लभ हुवा बल वीर्य सब जाता रहा हो गये जीते मृतक सम देह निज लख लीजिए ६ दूर जब तक हिन्द से होगी न गोबध की प्रथा उन्नती की तब तलक आशा न बिल्कुल कीजिए. धीर पृथ्वीचन्द्रजी का शिष्य कहता है अमर हिन्दुओं ? हिन्दुत्व अपना अब तो दिखला दीजिए मु. जिद १९८७ वैशाख
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[ ७१ ] मांस खाना महापाप है
मांसाहार से रे, क्यों ना तुम शरमाते १ मांस भखन से पाप होत है, जन्म - जन्म दुःख पाते
आगम-वेद-कुरान-बाईबिल, सब के सब बतलाते मां. २ अपने यदि काँटा भी लगे तो, बेसुध हो चिल्लाते
लेकिन निर्दई बन पशुओं पे, खट-खट छुरा चलाते मां. ३ मूत्र विन्दु लगजावे कहीं तो, घिन से नाक चढ़ाते
किन्तु उसी के अण्डे छीं - छीं, कैसे चट कर जाते मां. ४ वन गुलाम रसना के, कैसा जोर जुल्म तुम ढाते
। अनगिन मुर्दै रखके पंट को, कबरिस्तान बनाते मां. ५ समको समझो अब तो समझो, अमर तुम्हें समझाते छोड़ो मांस का खाना यदि तुम, अपने को सुख चाहते मां
हिसार १९८७ चातुर्मास
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HUUN
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[ ७२ ] महावीर के चरणों में भौतिक सत्ता का दावानल
वृद्धि गत था भीषण प्रतिपल महामेघ बनकर तू बरसा अति शीतल चन्दन ?
वीर जिन चरणों में वन्दन ? मर्म अहिंसा का समझा कर
किए द्रवित मन हर नारी नर रूका मूक पशुओं का उत्कम्पक करूणा क्रन्दन ?
वीर जिन ? चरणों में वन्दन ? धामिकता पै चढ़ा दम्भ - रंग
न्याय - श्रृंखला हुई अखिल भंग तब प्रयत्न से पुन. सत्य ने पाया अभिनन्दन ?
वीर जिन ? चरणों में वन्दन ? भूला जग बिल्कुल अपना - पन
दैववाद पर बना विकल - मन मानव में तू मानवता का लाया नव सानन्दन ?
वीर जिन ? चरणों में वन्दन ? विश्व शान्ति के अमर प्रशासक
द्वन्दू वैर वैषम्य विनाशक कोटि - कोटि कंठों से गुंजित हुआ 'जयतु त्रिशलानन्दन' ?
वीर जिन ? चरणों में वन्दन ?
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. [ ७३ ]
"पुस्तक" पुस्तक ! तुम हो कितनी सुन्दर !
बड़ी बिलक्षण ! बड़ी मनोहर ! मंगलमय अस्तित्वि तुम्हारा,
लगता है, प्राणों से प्यारा !! अक्षर - अक्षर मधुर अनूठा
विना तुम्हारे सब जग झूठा ! बहते विमल भाव के झरने,
त्रिविध ताप जगती का हरने । पढ़ते ही हो दूर अँधेरा,
____ अन्तर्मन में स्वर्ण सबेरा। कागज का तुम जड़ तन धारे
करती नित हित मौन इशारे !! स्वर्ग भूमि, पाताल, नदी, नभ,
प्रतिबिम्बित है तुम में सब जग। भूत, भविष्य और, वर्तमान से,
भेंट कराती बड़ी शान से !! छिपे तुम्हारे मृदु पृष्ठों पर,
. वीर, बुद्ध, यदुनन्दन, रघुवर! जब मन चाहें तब ही पावन,
दर्शन कर सकते मन भावन !!
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दीपक
अपनी
"
दीपक, तू सचमुच दीपक है !
देह जलाता । तम परिपूर्ण नरक सम गृह को,
क्षण में स्वर्ग बनाता ! अपने मलिन धूम्र को भी तू तनिक न व्यर्थ गँवाता। सुन्दरियों के चपल - द्रगों में कज्जल रंग बरसाता ।
शीष कटा कर दुगुना जलता, तम को मार भगाता। अमर विजय मरने वाला ही
पाता सदा बताता । अपने तले अँधेरा रहता, जग - प्रकाश फैलाता। पर - उपकार - निरत वीरों को अपना ध्यान .. न आता ।
मैं नगण्य क्या कर सकता हूं, दीपक, तूझे न . भाता। सूर्य चन्द्र अगम्य स्थलो में
जग मग ज्योति जगाता । स्नेह - हीन जग जीने से तो मरना भला कहाता । अतः स्नेह विन दीपक, तू भी, झट पट स्वर्ग सिधाता ।
. बाधक अधम पतंगों को द्र त -
यमपुर - दृश्य दिखाता । कर्म - मार्ग में विघ्न - विमर्दक रहना सतत सिखाता।
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[ ७५ ] "ओस" परोपकारी बनना तुम्हें तो अमूल्य शिक्षा कुछ ओस से लो। करो सभी सत्कृत गुप्तता से
प्रसिद्धि का नाम न भूल से लो। समस्त संसार प्रसुप्त होता यदा तदा भू पर ओस माती। निशा - निशा में कर आर्द्र खेती प्रभात होते जग में न पाती ।
"अनित्यता" लक्ष्मी का आनन्दी झला, टूटेगा जल्दी, क्यों झूला !
खाली ही हाथों जाएगा,
कौड़ी भी ना ले पाएगा। आना है तो जाना भी है पाना है तो खोना भी है। . .चाहे कोई कैसा ही हो,
हँसना है तो रोना भी है।
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"जागरण मैं प्रबुद्ध - विबुद्ध हूं ।
मैं स्वयं ही हूं अज्ञान है मुझ में कहाँ! स्वयं के भाग्य का स्रस्टा अटल सब ओर पूर्ण प्रकार मेरे
वज्र अंकित है ज्ञान का फैला यहाँ ? मेरी कर्तव्य की सीमा अचल । अन्तः करण से पाप मूलक आफतों की बिजलियाँ भावनाएँ भग गई
अविराम-गति गिरती रहें ! अध्यात्म हर्ष - प्रसारिणी खण्डशः तनु हो, सद्भावनाएँ जग गई।
तथा निज रक्त की . अत्युग्र मम संकल्प की
धारा बहें ! हठ शक्ति रूक सकती नहीं ! भय भ्रान्त होकर. जो विचारू
लक्ष्य से, सो करूं
तिल मात्र हट सकता नहीं ! क्या बात हो सकती नहीं !
उत्साह का विश्व का अणु-अणु खड़ा है दुर्दम्य तेजः पुंज बस, मेरे अधिकार में ।
घट सकता नहीं। . सम्राट में
मैं चढ़ रहा हूं, विभ्राट में
नित्य . परिव्राट में.
विमलाचरण के सोपान पर, संसार में
पा रहा हूं, संसार में कोई नहीं !
नित्य जय जो मुझ में निज-शासन करे! आसक्ति के तूफान पर नरक दे, या स्वर्ग दे ! बुद्ध, जिन वर, और पापी तथा पावन करे ! हरिहर, गौड, पैगम्बर,खुदा,
वस्तुतः मुझ में, . सभी हैं। है न, कोई भी जुदा।
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[ ७७ ] " हिम "
नन्हा सा अति ही सुकोमल खड़ा था धान्य पौधा कहीं सर्दी में हिम ने अरे पलक में मारा विचारा वहीं । पापात्मा हिम भी गला तरणि के पैरों तले ध्वस्त हो, कोई भी जग में न दुष्ट पर को दुःखी बना मस्त हो ||
★
"
"
कामना
वीर स्वामी ! मम हृदय में एक ही है कामना, पूरी कीजे बस इक यही और नहीं है याचना । हाँ, तेरा ही मरण घटिका में द्रढ़ ध्यान हो वे आसंगों का कुछ न अणु भी चित्त में मम भान होवे ॥
" आन्धो "
आन्धी ! तूने गगन चढ़ के सूर्य को भी दबाया पाके अभ्युन्नति प्रबलता क्या यही कृत्य भाया ! श्रीमान भास्वान गगन तल में दीप्त यों हीं रहेगा लम्बा-चौड़ा तव तनु अभी किन्तु भू पै गिरेगा ।।
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[ ७८ ]
मैं कौन हूं ''मैं न हूं किसी तरह भी हीन ! अनल अमल आनन्द - जलधि का मैं हूं सुखिया मीन !! संसारी झंझट का चहुंदिशी बिछा हुआ है जाल, बिछा रहे मुझको न कभी भी होता तनिक न ख्याल !
. मैं तो हूं अपने में लवलीन ! आत्म - लक्ष्य से मुझे डिगाते हों अरबों आघात, वज्र - प्रकृति का बना हुआ हूं क्या डिगने की बात,
स्वप्न में भी न बन गा दीन ! भव - सागर से तैर रहा हूं हुआ समझ लो पार, क्या चिन्ता अब खुलो खुला वह मोक्षपुरी का द्वार,
विश्व में मैं हूं इक स्वाधीन ! हानि लाभ हो, स्तुति - निन्दा हो, मान और अपमान, अच्छा - बुरा भले कुछ भी हो, मैं सब से बेमान,
कौन क्या देगा लेगा छीन !
अन्धकार विध्वस्त हुआ है, बढ़ा ज्ञान - आलोक, 'अमर' शान्ति सन्देश सुनेगा सकल चराचर लोक,
समुन्नत हूं मैं नित्य नवीन !!
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[ ७६ ]
66 अछूत क्रन्दन "
'अछूत' ? क्या नाम रखा हमारा,
चले हृदय पै रह-रह दुधारा । घृणा टपकती प्रति अक्षरों से,
किए सभी भाँति नरेतरों - से ||
गिनें गिनायें नित हिन्दुओं में, घुंसें हमारे बल पता न पाया पर बन्धुता का,
तड़ाग में वस्त्र मलीन धोलें,
रहा सदा वर्तन शत्रुता का ॥
स्वदेह श्व- शूकर भी झकीलें । पर न हम धो मुँह हाथ पावें,
निराश वापिस बस लौट आवें ॥
सजावट निराली, प्रभु मन्दिरों की, वजती सदा परन्तु हम हा ! घुसने न पाते,
*
उठा सड़ा कुक्कुर
कौंसिलों में ।
पायल रंडियों की ।
जगत्पिता दर्श न पुत्र पाते ॥
-
गोद लेते,
गजब कि सस्नेह मुख चूम लेते ।
समीप में हम यदि पहुंच जाते,
बिदक भगें भट, बकते बकाते ॥
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[ ८० ] बनें भक्त जब वे चुटिया कटा के,
बड़ी खुशी से गोमांस खाके । अजी, मियाँजी ! कह तब बुलावे,
झपट सिराहने पर ला बिठावें ॥ बुरा हमारा बस हिन्दु होना,
भला विधर्मी अहिन्दु, होना। समूल ही बुद्धि गई तुम्हारी,
विचित्र - सी है जड़ता तुम्हारी ।। सदैव सेवा करते तुम्हारी,
___अमूल्य बीती हा ? यह आयु सारी। हमें सँभाला तुमने कभी क्या ?
'मनुष्य भी' हो तुम सोचा कभी क्या ? शराब पीवें, गोमांस खावें,
दवा विदेशी सब चाट जावें। तथापि ना धर्म गया तुम्हारा,
भगा कि पल्ला भिड़ते हमारा । नहीं महीसुर, अतिशूद्र ही हैं,
नहीं समुन्नत शिर, पैर ही हैं ! मनुष्य तो हैं अब तो सँभालो,
गरीब भाई बिगड़े हमें अब बचालो ।
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[ ८१ ] कर्म . योग
सत्वहीन नर बातें करते, कर्म - योग से कोसों दूर । मिट्टी के कच्चे घट की ज्यों, जीवन होता चकनाचूर ॥
स्वप्न स्वप्न हैं स्वप्नों से क्या, होता जीवन का निर्माण ? श्रम की सतत साधना में ही, रहा हुआ है जन - कल्याण ।।
विश्वास
घोर निराशा - तमस् घिरा हो, विश्वासों के दीप जलाओ । सब - कुछ टूटे' टूट गिरे, परमत अपना विश्वास गिराओ ॥
विश्व बदलता, विश्वासों पर, विश्वासों पर विजय - पराजय । विश्वासों के बल झुकता है, सहसा दुर्गम,... अचल हिमालय ॥
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[ ८२ ]
धरा का देव
प्राणों की आहुति दे कर भी दुःखित जन का करता वाण । हानि देख पर की जो तड़पे, वही धरा का देव महान् ॥
रोता आया मानव अच्छा हो अब हँसता और दूसरे रोतों जैसे बने हँसाता
जग में,
जाए ।
भो,
जाए ||
को
क्षमा पर्व पर्युषण
घृणा, घृणा से, वैर, वंर से, कभी शान्त हो सकते क्या ? कभी खून से सने वस्त्र को, खून ही से धो सकते धो सकते क्या ?
क्षमा, शान्ति, सद्भाव, स्नेह की, गंगा की निर्मल धारा । गहरी डुबकी लगा हृदय से, धो डालो कलिमल सारा ||
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[ ८३ ] साधन का विवेक
दो अतियों के मध्य, शुद्ध-- जैनत्व बिराजित रहता है। धर्म नहीं अतिवादी होता, निरतिवाद - रत रहता है ।
देह नहीं शोषित करना है, और न पोषित करना है। शोषित - पोषित मध्य संयमित, रहना निरति विचरना है ।।
मन के जीते जीत
उठो मनस्वी, बनो तपस्वी, क्यों रो - रो आँखें मलते हो। मंजिल कुछ भी दूर नहीं है, यदि दृढ़ कदमों से चलते हो।
मन का हारा ही हारा है, मन का . जीता ही जीता है। तन में प्राण रहे तो क्या है ? मृत है, जो मन से रोता है ।।
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[ ८४ ]
वसन्त का स्वागत
पतझड़ आता है, उसे रोकना यत्न जीर्ण शीर्ण गिरते
रोना धोना कौन
पतझड़
जाता है,
नव वसन्त हंसता
जीवन का
आनन्द
मधुर मधुरतम
-
-
-
हिंसा,
ध्वस्त हुए पीड़ा
जन
महक
आएगा,
व्यर्थ है ।
पत्तों
पर,
अर्थ है ?
महा श्रमण महावीर
वीर ! तुम्हारे पद पंकज युग, इस धरती पर जिधर चले | कदम - कदम पर दिव्य भाव के, सुरभित, स्वर्णिम पुष्प
खिले ॥
-
-
उसी में, है मिलता ॥
आएगा-
खिलता ।
घृणा वैर के
मन में निष्काम
उठी केसर
कण्टक,
कारी ।
प्रेम की,
क्यारी ||
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. [ ८५] पवित्रता और वीरता
तन धोने से क्या होना है, जब तक मन न धुले । सब - कुछ बदले इक पलभर में, जब अन्तर बदले ।
बाह्य शत्रु पर विजय प्राप्त कर, क्या उछले मचले ? वीर वही जो अन्तस्तल के रिपुदल को कुचले ॥
दाता
अल - संचित करने वाला वह, सागर कितना गंदा खारा । मुक्त बरसने वाले घन की, कितनी मधु निर्मल जल - धारा ।।
दाता सुख के द्वार खोलता, पाता जन्म - जन्म सुख - शान्ति । किन्तु, संग्रही सुख के बदले, पाता सदा दुःख उद्भ्रान्ति ॥ .
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[ ८६ ]
स्वर्ग और नरक
सदाचार है स्वर्ग पुण्य कीज्योति सजा जलती रहती है ? मंगलमय सुख, शान्ति, शान्ति, प्रेम की, सृष्टि नित्य नूतन रहती है ॥
कदाचार है नरक, पाप की कीघोर निशा छायी रहती है । उत्पीड़न की,
रोग, शोक, भय,
हाय - हाय हर क्षण
रहती है ।।
जैसे को तैसा
यह भी अच्छा, वह भी अच्छा, अच्छा - अच्छा सब मिल जाए । हर मानब की यही किन्तु प्राप्ति का मर्म न पाए ।
तमन्ना,
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अच्छा पाना है, तो पहले, खुद को अच्छा क्यों न बना लें ? जो जैसा है, उसको है, उसको वैसामिलता, यह निज मंत्र बना लें ||
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[ ८७ ] ज्ञान - ज्योति
बुझते मन से दीप जलाये, उन दीपों से क्या होगा ? अधरों पर मुस्कान न खेली, फुलझड़ियों से क्या होगा ?
लाखों दीप जलं शास्त्रों के, पर मन तम से प्लावित है। ज्ञान - ज्योति के स्पर्श बिना मन, कभी न होता द्योतित है ।।
अमर सत्य
सत्य सत्य है, सदा सत्य है, उसमें नया पुराना क्या ? जब भी प्रकट सत्य की स्थिति हो, स्वीकृति से कतराना क्या ?
सत्य, सत्य है, जहाँ कहीं भी, मिले उसे अपनाना है । स्व - पर पक्ष से मुक्त सत्य की, निर्भय ज्योति जलाना है ।
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[ ८८ ]
मिलकर चलो
मिलकर सोचो, मिलकर बोलो, मिलकर चलो, एक ही पथ पर | घृणा द्वेष से दूर रहो नित, करो सर्व व्यवहार प्रीतिकर ||
जीवन
निर्भर, निर्भर तब तक रहता,
जब तक झर
झर बहता है । गति ही जीवन, जीवन ही गति, गति में जीवन रहता है ।
मानव तेरा भाग्य नहीं है, अन्य किसी के हाथों में । जो कुछ अच्छा - बुरा है वह सब, तेरे हाथों में ॥
रक्षित
मानव बनना, मानव बन जा, दानव बन जा, या पशु बन जा । श्रेष्ठ देव बन जा या बढ़कर, विश्व पूज्य श्री जिनवर बन जा ॥
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[ ८६ ]
आदमी आदमी को आदमी बनना सिखाया वीर ने, देवता सोया हुआ जग का जगाया वीर ने। विश्व के जन एक हैं, सब यह बताया वीर ने, घोर तम में सत्य का सूरज दिखाया वीर ने ॥
वीर की क्या देशना थी, बस सुधा की वृष्टि थी । हो गई जागृत सचेत , जो कि मूच्छित सृष्टि थी।
मंगल मंगल मन हो, मंगल वाणी, मंगल हो सब कर्म अनूप । मन की तमसा मिट जाए तो, नर ही है नारायण • रूप ॥
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[ ६० ] अन्तर् की आँखें बाहर की आँखों का क्या, आँखें . अन्तर . की खोलो । हर प्राणी में छुपा महेश्वर, कर दर्शन निर्मल हो लो ।। कटुता का व्यवहार किसी से, कभी भूलकर मत करना । मन, वाणी, कर्मों में प्रतिपल, बहे प्रेम का मधु झरना ||
नव चेतना
घिसी- पिटी बातों में उलझे, रहने वालों, क्या पाओगे ? नई रोशनी देख न पाएतो तुम जग से मिट जाओगे । नई चेतना नयी स्फूर्ति से, नये कर्म का पथ अपनाओ । करने पर क्या जीते - जी ही, स्वर्ग धरा पर ला दिखलाओ।
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[ ६१ ]
नव - वर्ष गया पुराणा वर्ष, आ गयाअभिनव रूप लिए नव वर्ष । विश्व - जगत् के जन - जन का हो, मंगलमय नित नव उत्कर्ष ॥ कोई रोती आँख मिले ना. मिले न मुख की करुण पुकार । हँसता - खिलता हर जीवन हो, खुले धरा पर स्वर्ग - द्वार ।।
धर्म : अन्तज्योति धर्म हृदय की दिव्य ज्योति है, सावधान ! बुझने ना पाये । काम - क्रोध, मद - लोभ, अहं के, अन्धकार में डूब ना जाये ॥
देश - काल सापेक्ष वियम हैं, मत - पंथों के भिन्न परस्पर । धर्म सहायक हो सकते हैं, पर न धर्म है, चलें स झकर ।।
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[ २ ]
स्वर्ग - नरक स्वर्ग कहाँ है, नरक कहाँ है ? पूछ रहे हैं, कब से जन - जन । किन्तु, न देख रहे हैं कैसा, है अपने में, अपना ही मन ।। स्वच्छ - निर्मल अपना ही मन, दिव्य स्वर्ग है मंगलकारी। हिंसक, क्रूर, विकारी अपना-- मन ही है नरक अमंगलकारी ।। और, न कोई दुःख - मूल है, दुःख - मूल है, निज अज्ञान । दुःख मुक्त हो, सुख पाना तोनिज स्वरूप पर रखिए ध्यान ॥
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[ ६३ ] उद्बोधन
--- उपाध्याय अमरमुनि कुछ भी नहीं असम्भव जग में, सब सम्भव हो सकता है। कार्य हेतु यदि कमर बाँध लो, तो सब कुछ हो सकता है। जीवन है नदिया की धारा, जव चाहो मुड़ सकती है। नरक लोक से, स्वर्ग लोक से, जब चाहो जुड़ सकती है। बन्धन - बन्धन क्या करते हो, बन्धन मन के बन्धन हैं। साहस करो, उठो झटका दो, बन्धन क्षण के बन्धन हैं। बीत गया गत, बीत गया बह, अब उसकी चर्चा छोड़ो। आज कर्म करो निष्ठा से, कल के मधु सपने जोड़ो। तुम्हें स्वयं ही स्वर्णिम उज्ज्बल, निज इतिहास बनाना। करो सदा सत्कर्म विहंसते, कर्म - योग अपनाना है। मन के हारे हार हुई है, मन के जीते जीत सदा। सावंधान मन हार न जाए, मन से मानव बना सदा ।। तू सूरज है, पगले ! फिर क्यों, अन्धकार से डरता है ? तू तो अपनी एक किरण से, जग - प्रदीप्त कर सकता है । अन्तर्मन में सद्भावों की, पावन - गंगा जब बहती। पाप - पंक की कलुषित रेखा, नहीं एक क्षण को रहती । धर्म हृदय की दिव्य ज्योति है, सावधान बुझने ना पाए । काम-क्रोध-मद - लोभ - अहं के, अन्धकार में डूब न जाए।
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[ ६४ ] जाति, धर्म के क्षुद्र अहं पर, लड़ना केवल पशुता है। जहाँ नहीं माधुर्य भाव हो, वहाँ कहाँ मानवता है ।। मंगल ही मंगल पाता है, जलते नित्य दीप से दीप । जो जगती के दीप बनेंगे, उनके नहीं बुझेंगे दीप ॥ धर्म न बाहर की सज्जा में, जयकारों में आडम्बर में । वह तो अन्दर - अन्दर गहरे, भावों के अविनाशी स्वर में ।। 'मैं' भी टूटे, 'तू' भी टूटे, एक मात्र सब हम ही हम हों। 'एगे आया' की ध्वनि गूजे, एक मात्र सब सम ही सम हो। यह भी अच्छा,वह भी अच्छा, अच्छा-अच्छा सब मिल जाए। हर मानव की यही तमन्ना, किन्तु प्राप्ति का मर्म न पाए ।। अच्छा पाना है, तो पहले, खुद को अच्छा क्यों न बना लें। जो जैसा है, उसको वैसा, गिलता यह निज मन्त्र बना लें। परिवर्तन से क्या घबराना, परिवर्तन ही जीवन है। धूप-छांव के उलट फेर में, हम सब का शक्ति - परीक्षण है।। सत्य, सत्य है, एक मुखी है, उसके दो मुख कभी न होते। दम्भ एक ही वह रावण है, उसके दस क्या, शत मुख होते ॥ एक जाति हो, एक राष्ट्र हो, एक धर्म हो धरती पर। मानवता की अमरज्योति सब-ओर जगे जन-जन, घर-घर ।
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[ १५ ]
प्रभु से प्रार्थना हे प्रभु वीर, दया के सागर । सब गुण आगर ज्ञान उजागर ॥१॥ जब तक जीऊँ हँस - हँस जीऊँ । सत्य - अहिंसा मधुरस पीऊँ ।।२।। छोडू लोभ - घमण्ड बुराई । चाहूं सबकी नित्य भलाई ॥३॥ जो करना सो अच्छा करना । फिर दुनियाँ में किससे डरना ॥४॥ हे प्रभु, मेरा मन हो सुन्दर । वाणी सुन्दर, जीवन सुन्दर ॥५॥
अभ्यास एक - एक यदि पेड़ लगाओ, तो तुम बाग लगा दोगे । एक - एक यदि ईंट जोड़ो, तो तुम भवन बना लोगे ॥
एक - एक यदि पैसा जोड़ो, तो बन जाओगे धनवान । एक - एक यदि अक्षर सीखो, तो बन जाओगे विद्वान ।
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सौ. प्रेमकुवर कटारिया
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________________ अमर साहित्य 100.00 16.00 30.00 30.00 16.00 25.00 100.00 1 सागर नौका नाविक 2 अहिंसा दर्शन 3 सत्य दर्शन 4 अस्तेय दर्शन 5 ब्रह्मचर्य दर्शन 6 अपरिग्रह दर्शन 7 पन्ना समिक्खए घम्म 8 चिन्तन की मनोभूमि 6 सूक्ति त्रिवेणी 10 अध्यात्म प्रवचन 11 जैनत्व की झांकी 12 पियूष घट 13 संगीतिका 14 आदर्श कन्या 15 आदि अनेक अन्यान्य प्रकाशन 25.00 40.00 40.00 10.00 7.00 4.00 7.00 in Education International