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मन की कुलाटें तर्ज-सुमति दो सुमति नाथ भगवान समझ मन मतना हो शैतान ... होली बहुत मान बस अब तो मतना जादा तान ॥धु. १ मैं सत्संगति करके अपना चाहता निज कल्याण । .. लेकिन ले दोड़े दुर्जन के झट तू वेईमान ॥ २ मैं चाहुं बस सेवक बन के सबका करूं सम्मान ।
लेकिन तू मुभसे करवाता ही उलटा अपमान । ३ मैं भूखे नंगो का करना, चाहुं कुछ धनदान ।
लेकिन तू काड़ी - कौड़ी पर मुझे करे हैरान ।। मैं समता से करना चाहूं अपने दिन गुजरान ।
लेकिन लगा उपाधि नितनव, तू करता हैरान ।। ५ मैं निश्चय एकान्त बैठकर सुमरू जव भगवान ।
विघ्न करे तब सब कामो का, करके मेल मिलाप । ६ तु मेरा है संगी साथी है, तुझे चाहिए ज्ञान ।
आजा वाज अपनी करनी से छोड़दे भूडी वान ।। ७ अमर चंद गुरुदेव कृपा से लीना योग महान । . अब तो रहना दूर अन्यथा करदूंगा अबसान ।।
इति. १६६३
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