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66 अछूत क्रन्दन "
'अछूत' ? क्या नाम रखा हमारा,
चले हृदय पै रह-रह दुधारा । घृणा टपकती प्रति अक्षरों से,
किए सभी भाँति नरेतरों - से ||
गिनें गिनायें नित हिन्दुओं में, घुंसें हमारे बल पता न पाया पर बन्धुता का,
तड़ाग में वस्त्र मलीन धोलें,
रहा सदा वर्तन शत्रुता का ॥
स्वदेह श्व- शूकर भी झकीलें । पर न हम धो मुँह हाथ पावें,
निराश वापिस बस लौट आवें ॥
सजावट निराली, प्रभु मन्दिरों की, वजती सदा परन्तु हम हा ! घुसने न पाते,
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उठा सड़ा कुक्कुर
कौंसिलों में ।
पायल रंडियों की ।
जगत्पिता दर्श न पुत्र पाते ॥
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गोद लेते,
गजब कि सस्नेह मुख चूम लेते ।
समीप में हम यदि पहुंच जाते,
बिदक भगें भट, बकते बकाते ॥
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