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दीपक
अपनी
"
दीपक, तू सचमुच दीपक है !
देह जलाता । तम परिपूर्ण नरक सम गृह को,
क्षण में स्वर्ग बनाता ! अपने मलिन धूम्र को भी तू तनिक न व्यर्थ गँवाता। सुन्दरियों के चपल - द्रगों में कज्जल रंग बरसाता ।
शीष कटा कर दुगुना जलता, तम को मार भगाता। अमर विजय मरने वाला ही
पाता सदा बताता । अपने तले अँधेरा रहता, जग - प्रकाश फैलाता। पर - उपकार - निरत वीरों को अपना ध्यान .. न आता ।
मैं नगण्य क्या कर सकता हूं, दीपक, तूझे न . भाता। सूर्य चन्द्र अगम्य स्थलो में
जग मग ज्योति जगाता । स्नेह - हीन जग जीने से तो मरना भला कहाता । अतः स्नेह विन दीपक, तू भी, झट पट स्वर्ग सिधाता ।
. बाधक अधम पतंगों को द्र त -
यमपुर - दृश्य दिखाता । कर्म - मार्ग में विघ्न - विमर्दक रहना सतत सिखाता।
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