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सन्त जन ऐसे तर्ज, न कुछ भी संग लाये थे चलेगा संग में भी क्या ? जगत में तारने वाले जगत में संत जन ही है। उन्हें उपमा वहो क्या दे ? अपन से वे अपन ही है ॥ध्र . सकल सुख भोग तज कर के, जगत कल्याण को निकले मनोहर महल जिनके फिर, भयावह शून्य बन ही है ।।१ कठीन संयम सुमेरू के, शिखर पर संत वैठे हैं . जिधर देखो उधर उनके, अमन के गुल चमन ही है ॥२
सुधा की शोध में दुनियाँ, बनी फिरती है क्यों पागल, सुधा तो संत लोगों के, सदा मंगल वचन ही है ।।३ कुल्हाड़ी से कोई काटे, कोई आ फूल बरसाये, हंसी से दे दुआ यकसाँ अजब सारे चलन ही है ॥४ स्वयं पर बज्र भी टुटे, तो हँसते ही रहेंगे पर दुःखी को देख हिल उठते, दया के तौ सदन ही है ॥५ हृदय की हूक से हरदम, हजारों वार वन्दन है, अमर अमरत्व के दाता, सन्त पावन चरण ही है ॥६
महरोली १९८१ मार्गशीसं
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