________________
[ ३७ ] मूर्खमन
मूर्खमन ! कब तक जहाँ में अपने को उलझायेगा। ध्यान श्री जिनराज के चरणो में कबतू लायगा ? ॥ध्र.
भूलकर निज लक्ष को, जड़ भूतका चेरा बना। क्या इसी भ्रम कल्पना में, तू खुदा बन जायगा ॥
धर्म का धन छोड़कर पूजी बटोरी पापकी। ढौंग के वल कब तलक धर्मात्मा कहलायेगा ?।। दीन को दाना न देता हज्म करता सब स्वयं । जायगा परलोग में तो तू वहां क्या खायगा ? | जब की तू होता नहीं औरों के संकट में शरीक । कोन शठ तुझ को यहां फिर प्रेम से अपनाएगा ? ॥ बन्दरों को भी उछलते कूदने में मात दी। मानवी रंग ढंग में कब अपने को तू ठहरायेगा । जोड़ नाता वीर से ले शान्ति की धूनी रमा । अन्यथा पाखण्ड में फंस कर अमर क्या पायेगा? ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org