Book Title: Bhavanjali
Author(s): Amarmuni
Publisher: Veerayatan
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[ ६३ ] उद्बोधन
--- उपाध्याय अमरमुनि कुछ भी नहीं असम्भव जग में, सब सम्भव हो सकता है। कार्य हेतु यदि कमर बाँध लो, तो सब कुछ हो सकता है। जीवन है नदिया की धारा, जव चाहो मुड़ सकती है। नरक लोक से, स्वर्ग लोक से, जब चाहो जुड़ सकती है। बन्धन - बन्धन क्या करते हो, बन्धन मन के बन्धन हैं। साहस करो, उठो झटका दो, बन्धन क्षण के बन्धन हैं। बीत गया गत, बीत गया बह, अब उसकी चर्चा छोड़ो। आज कर्म करो निष्ठा से, कल के मधु सपने जोड़ो। तुम्हें स्वयं ही स्वर्णिम उज्ज्बल, निज इतिहास बनाना। करो सदा सत्कर्म विहंसते, कर्म - योग अपनाना है। मन के हारे हार हुई है, मन के जीते जीत सदा। सावंधान मन हार न जाए, मन से मानव बना सदा ।। तू सूरज है, पगले ! फिर क्यों, अन्धकार से डरता है ? तू तो अपनी एक किरण से, जग - प्रदीप्त कर सकता है । अन्तर्मन में सद्भावों की, पावन - गंगा जब बहती। पाप - पंक की कलुषित रेखा, नहीं एक क्षण को रहती । धर्म हृदय की दिव्य ज्योति है, सावधान बुझने ना पाए । काम-क्रोध-मद - लोभ - अहं के, अन्धकार में डूब न जाए।
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