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"जागरण मैं प्रबुद्ध - विबुद्ध हूं ।
मैं स्वयं ही हूं अज्ञान है मुझ में कहाँ! स्वयं के भाग्य का स्रस्टा अटल सब ओर पूर्ण प्रकार मेरे
वज्र अंकित है ज्ञान का फैला यहाँ ? मेरी कर्तव्य की सीमा अचल । अन्तः करण से पाप मूलक आफतों की बिजलियाँ भावनाएँ भग गई
अविराम-गति गिरती रहें ! अध्यात्म हर्ष - प्रसारिणी खण्डशः तनु हो, सद्भावनाएँ जग गई।
तथा निज रक्त की . अत्युग्र मम संकल्प की
धारा बहें ! हठ शक्ति रूक सकती नहीं ! भय भ्रान्त होकर. जो विचारू
लक्ष्य से, सो करूं
तिल मात्र हट सकता नहीं ! क्या बात हो सकती नहीं !
उत्साह का विश्व का अणु-अणु खड़ा है दुर्दम्य तेजः पुंज बस, मेरे अधिकार में ।
घट सकता नहीं। . सम्राट में
मैं चढ़ रहा हूं, विभ्राट में
नित्य . परिव्राट में.
विमलाचरण के सोपान पर, संसार में
पा रहा हूं, संसार में कोई नहीं !
नित्य जय जो मुझ में निज-शासन करे! आसक्ति के तूफान पर नरक दे, या स्वर्ग दे ! बुद्ध, जिन वर, और पापी तथा पावन करे ! हरिहर, गौड, पैगम्बर,खुदा,
वस्तुतः मुझ में, . सभी हैं। है न, कोई भी जुदा।
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