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[ ६० ] अन्तर् की आँखें बाहर की आँखों का क्या, आँखें . अन्तर . की खोलो । हर प्राणी में छुपा महेश्वर, कर दर्शन निर्मल हो लो ।। कटुता का व्यवहार किसी से, कभी भूलकर मत करना । मन, वाणी, कर्मों में प्रतिपल, बहे प्रेम का मधु झरना ||
नव चेतना
घिसी- पिटी बातों में उलझे, रहने वालों, क्या पाओगे ? नई रोशनी देख न पाएतो तुम जग से मिट जाओगे । नई चेतना नयी स्फूर्ति से, नये कर्म का पथ अपनाओ । करने पर क्या जीते - जी ही, स्वर्ग धरा पर ला दिखलाओ।
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