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[ ७७ ] " हिम "
नन्हा सा अति ही सुकोमल खड़ा था धान्य पौधा कहीं सर्दी में हिम ने अरे पलक में मारा विचारा वहीं । पापात्मा हिम भी गला तरणि के पैरों तले ध्वस्त हो, कोई भी जग में न दुष्ट पर को दुःखी बना मस्त हो ||
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कामना
वीर स्वामी ! मम हृदय में एक ही है कामना, पूरी कीजे बस इक यही और नहीं है याचना । हाँ, तेरा ही मरण घटिका में द्रढ़ ध्यान हो वे आसंगों का कुछ न अणु भी चित्त में मम भान होवे ॥
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" आन्धो "
आन्धी ! तूने गगन चढ़ के सूर्य को भी दबाया पाके अभ्युन्नति प्रबलता क्या यही कृत्य भाया ! श्रीमान भास्वान गगन तल में दीप्त यों हीं रहेगा लम्बा-चौड़ा तव तनु अभी किन्तु भू पै गिरेगा ।।
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