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[ ६२ ] . विद्या के ऊपर दो मित्रों का संवाद नरेन्द्र-मत विद्या पढ़ो मत विद्या पढ़ो
पढ़कर के विद्या को दुःख में पड़ो। सुरेन्द्र-आवो विद्या पढ़े आवो विद्या पढ़े
पढ़कर के विद्या को ऊँचे चढ़े ॥ नरेन्द्र-गलियों में जूती छिटकाते-फिरते विद्यावान
बीस तीस का वेतन लेकर, खोते दीन ईमान सुरेन्द्र-अध कचरे ही मूरख फिरते, फिरे न विद्यावान
आलिम तो दौलत को ठुकरा रखते दीन ईमान ।। नरेन्द्र-विद्या पढ़ने वाले होते लुच्चे और लवार
करन धरन को एक नहीं पर बाते करें हजार ।। सुरेन्द्र-पूरे पक्के अपने प्रण के होते है विद्वान
पूरा करके ही दिखलाते जो कुछ कहे जवान ।। नरेन्द्र-आलिम फाजील लाखों फिरते, टुकड़े से लाचार
धनि को आगे सीस झुकाते करते जीजीकार . सुरेन्द्र-विद्यावान कभी ना होते किसी तरह लाचार
. आलिम की नित सेवा करते बड़े-बड़े सरदार ।। नरेन्द्र-मित्र ! ठीक है कहना तेरा करता हूं स्वीकार अमर पढूगा विद्या में अब करके यत्न अपार महेन्द्रगढ़ १९७८ चातुर्मास आवो
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