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[ १७ ] जी-जान होमते हों, जब प्राण तन से निकले ॥४ भूखों अपाहिजों को सर्वस्व दे दिलाकर ।
उपवास हो रहे हों, जब प्राण तन से निकले ॥५ ऋण मातृ भूमि का सब, डंके की चोट देकर
जय -घोष गूजते हों, जब प्राण तन से निकले ॥६ हँसते ही हों 'अमर' हम, रोता हो देश सारा मरकर भी जी रहे हों, जब प्राण तन से निकले ॥७
॥ इति. ॥
भगवान कहाँ ? अफसोस है, मुझे तुम यहाँ - वहाँ तो ढूँढते हो
मौजूद हूं जहाँ में वहाँ पर न ढूँढते हो ॥१ मन्दिर व मस्जिदों में, गिरजा घरों के भीतर
__ सोता हुं आलसी क्या, वहाँ जा पुकारते हो ॥२ काशी जेरूसेलम में, मक्का में कैद हूं क्या। .. मिलने मुझे जो वहां तुम बेसांस दौड़ते हो ॥३ लज्जा से डुबा हूं क्या, गंगा गोदावरी में
बाहर निकालने को जो उसमें कूदते हो ॥४ दोनों व दुखितों की सेवा में रहता हूं मैं
हिम्मत हो जिनकी देखो क्यों दूर भागते हो ॥५ मिलना अगर मिलो यहां, सेवाव्रती 'अमर' हो
नहिं तो ये भक्तपन का, क्यों ढोंग बाँधते हो ॥६
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