Book Title: Bhavanjali
Author(s): Amarmuni
Publisher: Veerayatan

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Page 54
________________ [ ४८ ] देवियों ! तर्ज कह रहा है आसयाँ यह सब समा कुछ भी नहीं देवियों, कुछ ध्यान अपने पर नहीं लाती हो तुम । खो दिया गौरव सकल, अब किसपे इतराती हो तुम ॥ध्रु सास पेठनती लड़ाई खाने को टुकड़ा नहीं । कुगुरु को माल ताजा रोज चढ़वाती हो तुम ॥ २ जेठ सुसरों से पर्दा कौठे पे घुस बैठना । पूछे पे उत्तर न विलकुल, गूंगो बन जाती हो तुम || ३ फेरी वाले छाकटे लुच्चे विसानी को बुला । खूब हँस-हँस बात करती हो न सकुचाती हो तुम || ४ हो गया बच्चा जरा बीमार बस मस्जिद चली । खेद है गुण्डों से उसके मुँह में थुकवाती हो तुम ॥ नाक में है दम पतीका जेवरों की मांग से । खाते पीते वक्त बड़ - बड़ करके दुखयाती हो तुम ॥ ५ ६ लद लदा कर रेशमी वस्त्रों व गहनों से अमर । मेलो में गुण्डो के धक्के खाने क्यों जाती हो तुम ॥ नारनोल १० सितम्बर १९३६ ॥ इति ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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