Book Title: Bharat ke Prachin Rajvansh Part 01
Author(s): Vishveshvarnath Reu, Jaswant Calej
Publisher: Hindi Granthratna Karyalaya
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भारतके प्राचीन राजवंश
श० सं० २७३ से २८६ तक के १३ वर्षके सिक्कोंके न मिलने से अनुमान होता है कि उस समय इनके राज्यमें अवश्य ही कोई बड़ी गड़बड़ मची होगी, जिससे सिक्के ढलवानेका कार्य बन्द हो गया थीं । यही अवस्था क्षत्रप यशोदामा द्वितीयके और महाक्षत्रप स्वामी रुद्रदामा द्वितीयके राज्य के बीच भी हुई होगी ।
श० सं० २८० से २९४ तक के कुछ सीसेके चौकोर सिक्के मिले हैं । ये क्षत्रपोंके सिक्कोंसे मिलते हुए ही हैं । इनमें केवल विशेषता इतनी ही है कि उलटी तरफ चैत्यके नीचे ही संवत् लिखा होता है ।
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परन्तु निश्चयपूर्वक नहीं कह सकते कि ये सिक्के स्वामी रुद्रसेन तृतीके ही हैं या इसके राज्य पर हमला करनेवाले किसी अन्य राजाके हैं । स्वामी सिंहसेन ।
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[ श० सं० ३०४ + ३० + ( ई० स० ३८२+३८४ ? = वि० सं० ४३९-४४१ ? ) ]
यह स्वामी रुद्रसेन तृतीयका भानजा था । इसके महाक्षत्रप उपाधि - वाले चाँदी के सिक्के मिले हैं । इन पर एक तरफ " राज्ञ महाक्षत्रपस स्वामी रुद्रसेनस राज्ञ महाक्षत्रपस स्वस्त्रियस्य स्वामी सिंहसेनस ' " या " महाराज क्षत्रप स्वामी रुद्रसेन स्वस्त्रियस राज्ञ महाक्षत्रपस स्वामी सिंहसेनस्य " और दूसरी तरफ श० सं० ३०४ लिखा रहता है | परन्तु एक सिक्के पर ३०६ भी पढ़ा जा सकता है ।
इसके सिक्कों परके अक्षर बहुत ही खराब हैं। इससे इसमें नाम के पढ़ने में भ्रम हो जाता है; क्योंकि इसमें लिखे 'ह' और 'न'
( १ ) J. B. B. R. A. S; Vio. XX (1899), P. 209.
(२) Rapsons catalogue of the Andhra and Kshatrap dynasty, P. CXLV & OXLVI.
( ३ ) यह अङ्क साफ नहीं पढ़ा जाता है ।
(४) Rapson's catalogue of the coins of Andhra and Kshatrap dynasty, P. CXLVI.
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