Book Title: Bharat ke Prachin Rajvansh Part 01
Author(s): Vishveshvarnath Reu, Jaswant Calej
Publisher: Hindi Granthratna Karyalaya
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आबूके परमार ।
विक्रम संवत् १३६८ ( ईसवी सन् १३११ ) के आसपास, चन्द्रावतीको छीन कर राव लुम्भाने इनके राज्यकी समाप्ति कर दी ।
विक्रम संवत् १३५६ ( ईसवी सन् १२९९ ) का एक लेख वर्मागा गाँव के सूर्य-मन्दिरमें मिला है । उसमें " महाराजकुल श्रीविक्रमसिंहकल्याणविजयराज्ये " ये शब्द खुदे हैं । इस विक्रमसिंह के वंशका इसमें कुछ भी वर्णन नहीं है । यह पदवी विक्रम संवत्की चौदहवीं शताब्दि के गुहिलोतों और चौहानोंके लेखों में मिलती है । सम्भवतः निकट रहने के कारण परमारोंने भी यदि इसे धारण किया हो तो यह विक्रमसिंह प्रतापसिंहका उत्तराधिकारी हो सकता है । पर बिना अन्य प्रमाणों के निश्वय रूपसे कुछ नहीं कहा जा सकता । भाटोंकी ख्यातमें लिखा है कि आबूका अन्तिम परमार राजा हूण नामका था । उसको मार कर चौहानोंने आबूका राज्य छीन लिया । यही बात जन श्रुति से भी पाई जाती है । इसी राजा के विषय में एक कथा और भी प्रचलित है । वह इस प्रकार है:
राजा ( हूण ) की रानीका नाम पिङ्गला था । एक रोज राजाने अपनी रानीके पातिव्रत्यकी परीक्षा लेनेका निश्चय किया । शिकारका - बहाना करके वह कहीं दूर जा रहा । कुछ दिन बाद एक साँड़नी - सवार के साथ उसने अपनी पगड़ी रानीके पास भिजवाकर कहला दिया कि राजा शत्रुओं के हाथ से मारा गया । यह सुन कर पिङ्गलाने पतिकी उस पगड़ीको गोद में रख कर रोते रोते प्राण छोड़ दिये । अर्थात् पतिके पीछे सती हो गई। जब यह समाचार राजाको मिला तब वह उसके शोकसे पागल हो गया और रानीकी चिता के इर्द गिर्द हाय पिङ्गला ! हाय पिङ्गला !' चिल्लाता हुआ चक्कर लगाने लगा। अन्त में गोरखनाथके उपदेशसे उसे वैराग्य हुआ । अतएव सब राजपाट छोड़कर गुरुके साथ ही वह भी वनमें चला गया। इसी अवसर पर चौहानोंने आबूका राज्य दबा लिया ।
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इस जनश्रुति पर विश्वास नहीं किया जा सकता । मूता नेणसीने लिखा है कि परमारों को छलसे मार कर चौहानोंने आबूका राज्य लिया ।
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