Book Title: Bharat ke Prachin Rajvansh Part 01
Author(s): Vishveshvarnath Reu, Jaswant Calej
Publisher: Hindi Granthratna Karyalaya
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भारतके प्राचीन राजवंश
संवत् ग्यारा सौ एकावन चैत सुदी रविवार ।
जगदेव सीस समप्पियो धारा नगर पवार ॥ परन्तु जगदेवका विश्वास-योग्य हाल नहीं मिलता।
ऐसी प्रसिद्ध है कि नरवर्मदेवने गौड़ और गुजरातको जीता था, तथा शास्त्रार्थोंका भी वह बड़ा रसिक था । महाकालके मन्दिरमें उसके समयमें जैन रत्नसूरि और शैव विद्याशिववादीके बीच एक बड़ा भारी शास्त्रार्थ हुआ था। एक और शास्त्रार्थका जिक्र अम्मस्वामीके लिखे हुए रत्नसूरिके जीवनचरितकी प्रशस्तिमें है। यह चरित वि० सं० ११९० (ई० स० ११३४ ) में लिखा गया । इससे समुद्रघोषका परमारोंकी सभामें होना पाया जाता है:
(१) यो मालवोपात्तविशिष्टतो-विद्यानवद्योपशमप्रधानः ।
विद्वज्जनालिश्रितपादपद्मः केषां न विद्यागुरुतामदत्त ॥ ८ ॥ अर्थात्-~-समुद्रघोष, जिसने मालवेमें तर्कशास्त्र पढ़ा था और जो बड़ा भारी विद्वान था, किनका विद्यागुरु न था ? मतलब यह कि सभी उसके शिष्य थे।
(६) धारायां नरवर्मदेवनृपति श्रीगोहृदमापति श्रीमत्सिद्धपतिञ्च गुर्जरपुरे विद्वज्जने साक्षिणि । स्वैर्यो रञ्जयति स्म सद्गुणगणैर्विद्यानवद्याशयो
लब्धीः प्राक्तनगौतमादिगणभृत्संवादिनीरयन् ॥ ६ ॥ अर्थात् -समुद्रघोष गौतम आदिके सदृश विद्वान था। उसने अपनी विद्वत्तासे नरवर्मदेव आदि राजाओंको प्रसन्न कर दिया।
पूर्वोक्त प्रथम श्लोकसे अनुमान होता है कि उस समय मालवा विद्याके लिए प्रसिद्ध स्थान था ।
समुद्रघोषका शिष्य सूरप्रभसूरि था । और सूरप्रभसूरिका शिष्य रत्नसूरि सूरप्रभ भी बड़ा विद्वान था, जैसा कि इस श्लोकसे प्रकट होता है:
मुख्यस्तदीयाशष्येषु कवीन्द्रेषु वुधेषु च । सूरिः सूरप्रभः श्रीमानवन्तीख्यातसद्गुणः ॥
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