Book Title: Bharat ke Prachin Rajvansh Part 01
Author(s): Vishveshvarnath Reu, Jaswant Calej
Publisher: Hindi Granthratna Karyalaya
View full book text
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
www
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
भारतके प्राचीन राजवंश
मालवेके परमार । यद्यपि, इस समय, इस शाखाके परमार अपनेको विक्रम संवत् चलानेवाले विक्रमादित्यके वंशज बतलाते हैं; परन्तु पुराने शिलालेखों, ताम्रपत्रों और ऐतिहासिक पुस्तकोंमें इस विषयका कुछ भी वर्णन नहीं मिलता । यदि मुन्न, भोज आदि राजाओंके समयमें भी ऐसा ही खयाल किया जाता होता, तो वे अपनी प्रशस्तियोंमें विक्रमके बंशज होनेका गौरव प्रगट किये बिना कभी न रहते । परन्तु उस समयकी प्रशस्तियों आदिमें इस विषयका वर्णन न होनेसे केवल आज कलकी कल्पित दन्तकथाओंपर विश्वास नहीं किया जा सकता।
परमारोंके लेखों' तथा पद्मगुप्त (परिमल) रचित नवसाहसाङ्कचरित नामक काव्यमें लिखा है कि इनके मूल पुरुषकी उत्पत्ति, (१) अस्त्युव/ध्रः प्रतीच्यां हिमगिरितनयः सिद्धदं( दांपत्यसिद्धेः
स्थानञ्च ज्ञानभाजामभिमतफलदोऽखर्वितः सोऽव॑दाख्यः । विश्वामित्रो वसिष्ठादहरतव [ल तो यत्र गां तत्प्रभावा--- जज्ञे वीरोग्निकुण्डाद्रिपुबलानधनं यश्चकारक एव [५] मारयित्वा परान्धेनुमानिन्ये स ततो मुनिः । उवाच परमारा [ ख्यपा] र्थिवेन्द्रो भविष्यसि [ ६ ] तदन्ववायेऽखिलयज्ञसंघतृप्तामरोदाहृतकीर्तिरासीत् । उपेन्द्रराजो द्विजवर्गरत्नं सौ (शौ ) र्याजितोत्तुङ्गनृपत्व [ मा ]नः [७]
(-उदैपुर-ग्वालियर-प्रशस्तिः ; एपिग्राफिया इंडिका, जिल्द १, भाग ५) (२) वंशः प्रववृते तस्मादादिराजान्मनोरिव ।
नीतः सुवृत्तैर्गुरुतां नृपैर्मुक्काफलैरिव ॥ ७५॥ तस्मिन् पृथुप्रतापोऽपि निर्वापितमहीतलः । उपेन्द्र इति संजज्ञे राजा सूर्येन्दुसनिभः ॥ ७६ ॥
(-नवसाहसाङ्कचरित, सर्ग ११)
For Private and Personal Use Only