Book Title: Bharat ke Prachin Rajvansh Part 01
Author(s): Vishveshvarnath Reu, Jaswant Calej
Publisher: Hindi Granthratna Karyalaya
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भारतके प्राचीन राजवंश
पहला चे० सं० ९२६ का पूर्वोक्त जयसिंहदेव के सामन्त महाराणा कीर्तिवर्माका, दूसरा वि० सं० १२५३ विजय ( सिंह ) देवके सामन्त महाराणक सलखणवर्मदेवका, तीसरा वि० सं० १२९७ का त्रैलोक्यवर्मदेवके सामन्त महाराणक कुमारपालदेवको और चौथा वि० सं० १२९८ का त्रैलोक्यवर्मदेव के सामन्त महाराणक हरिराजदेवकां ।
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ऊपर उल्लिखित ताम्रपत्रों में जयसिंहदेव विजय ( सिंह ) देव और त्रैलोक्यवर्मदेव इन तीनोंका खिताब इस प्रकार लिखा है:
" परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर परममाहेश्वर श्रीमद्दामदेवपादानुध्यात परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर त्रिकलिङ्गाधिपति निजभुजोपार्जिताश्वपति गजपति नरपति राजत्रयाधिपति । "
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ऊपर वणर्न किये हुए तीन राजाओंमेंसे जयसिंहदेव और विजय - ( सिंह ) देवको जनरल कनिङ्गहम तथा डाक्टर कीलहार्न, कलचुरिवंशके मानते हैं, और तीसरे राजा त्रैलोक्यवर्मदेवका चंदेल होना अनुमान करते हैं; परन्तु उसके नामके साथ जो खिताब लिखे गए हैं, वे चन्देलोंके नहीं; किन्तु हैहयोंहीके हैं । अतः जब तक उसका चन्देल होना दूसरे प्रमाणोंसे सिद्ध न हो तब तक उक्त यूरोपियन विद्वानों की बात पर विश्वास करना उचित नहीं है ।
वि० सं० १२५३ तक विजयसिंहदेव विद्यमान था । सम्भवत: इसके बाद भी वह जीवित रहा हो। उसके पीछे उसके पुत्र अजयसिंह तकका ङ्खलाबद्ध इतिहास मिलता आता है । शायद उसके पीछे वि० सं० १२९८ में त्रैलोक्यवर्मा राजा हो। उसी समय के आसपास रीवाँके बघेलोंने त्रिपुरीके हैहयोंके राज्यको नष्ट कर दिया ।
इन हैहयवंशियोंकी मुद्राओंमें चतुर्भुज लक्ष्मीकी मूर्ति मिलती है, जिसके दोनों तरफ हाथी होते हैं। ये राजा शैव थे । इनके झंडे में बैलका निशान बनाया जाता था ।
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(१) Ind, ant, Vol, XVII, P. 231. ( २ ) Ind. Ant Vol. XVII. P. 235.
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