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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारतके प्राचीन राजवंश पहला चे० सं० ९२६ का पूर्वोक्त जयसिंहदेव के सामन्त महाराणा कीर्तिवर्माका, दूसरा वि० सं० १२५३ विजय ( सिंह ) देवके सामन्त महाराणक सलखणवर्मदेवका, तीसरा वि० सं० १२९७ का त्रैलोक्यवर्मदेवके सामन्त महाराणक कुमारपालदेवको और चौथा वि० सं० १२९८ का त्रैलोक्यवर्मदेव के सामन्त महाराणक हरिराजदेवकां । . ऊपर उल्लिखित ताम्रपत्रों में जयसिंहदेव विजय ( सिंह ) देव और त्रैलोक्यवर्मदेव इन तीनोंका खिताब इस प्रकार लिखा है: " परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर परममाहेश्वर श्रीमद्दामदेवपादानुध्यात परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर त्रिकलिङ्गाधिपति निजभुजोपार्जिताश्वपति गजपति नरपति राजत्रयाधिपति । " - ऊपर वणर्न किये हुए तीन राजाओंमेंसे जयसिंहदेव और विजय - ( सिंह ) देवको जनरल कनिङ्गहम तथा डाक्टर कीलहार्न, कलचुरिवंशके मानते हैं, और तीसरे राजा त्रैलोक्यवर्मदेवका चंदेल होना अनुमान करते हैं; परन्तु उसके नामके साथ जो खिताब लिखे गए हैं, वे चन्देलोंके नहीं; किन्तु हैहयोंहीके हैं । अतः जब तक उसका चन्देल होना दूसरे प्रमाणोंसे सिद्ध न हो तब तक उक्त यूरोपियन विद्वानों की बात पर विश्वास करना उचित नहीं है । वि० सं० १२५३ तक विजयसिंहदेव विद्यमान था । सम्भवत: इसके बाद भी वह जीवित रहा हो। उसके पीछे उसके पुत्र अजयसिंह तकका ङ्खलाबद्ध इतिहास मिलता आता है । शायद उसके पीछे वि० सं० १२९८ में त्रैलोक्यवर्मा राजा हो। उसी समय के आसपास रीवाँके बघेलोंने त्रिपुरीके हैहयोंके राज्यको नष्ट कर दिया । इन हैहयवंशियोंकी मुद्राओंमें चतुर्भुज लक्ष्मीकी मूर्ति मिलती है, जिसके दोनों तरफ हाथी होते हैं। ये राजा शैव थे । इनके झंडे में बैलका निशान बनाया जाता था । For Private and Personal Use Only (१) Ind, ant, Vol, XVII, P. 231. ( २ ) Ind. Ant Vol. XVII. P. 235. ५४
SR No.020119
Book TitleBharat ke Prachin Rajvansh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishveshvarnath Reu, Jaswant Calej
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1920
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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