Book Title: Bharat ke Prachin Rajvansh Part 01
Author(s): Vishveshvarnath Reu, Jaswant Calej
Publisher: Hindi Granthratna Karyalaya
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क्षत्रप-वंश।
क्षत्रपस यशोदाम्नः" लिखा रहता है । किसी किसीमें 'दाम्नः' में विसर्ग नहीं लगे होते हैं।
स्वामी रुद्रदामा द्वितीय । इसका पता केवल इसके पुत्र स्वामी रुद्रसेन तृतीयके सिक्कोंसे ही मिलता है। उनमें इसके नामके आगे 'महाक्षत्रप' की उपाधि लगी हुई है। भर्तृदामाके बाद पहले पहल इसके नामके साथ महाक्षत्रपकी उपाधि लगी मिली है।
स्वामी जीवदामाके वंशजोंके साथ इसका क्या सम्बन्ध था, इस बातका पता अब तक नहीं लगा है। सिक्कोंमें इस राजाके और इसके वंशजोंके नामोंके आगे “ राजा महाक्षत्रप स्वामी" की उपाधियाँ लगी होती हैं । परन्तु स्वामी सिंहसेनके कुछ सिक्कोंमें “ महाराजाक्षत्रप स्वामी " की उपाधियाँ लगी हैं । इसके एक पुत्र और एक कन्या थी। पुत्रका नाम स्वामी रुद्रसेन था।
स्वामी रुद्रसेन तृतीय । [श० सं० २७०-३०० ( ई० स० ३४८-३७८=वि० सं० ४०५-४३५)] ___ यह रुद्रदामा द्वितीयका पुत्र था। इसके चाँदीके सिक्के मिले हैं। इन पर श० सं० २७० से २७३ तकके और श० सं० २८६ से ३०० तकके संवत् लिखे हुए हैं । परन्तु इस समयके बीचके १३ वर्षों के सिक्के अब तक नहीं मिले हैं । इम सिक्कोंपर एक तरफ “ राज्ञ महाक्षत्रपस स्वामी रुद्रदामपुत्रस राज्ञमहाक्षत्रपस स्वामी रुद्रसेनस" और दूसरी तरफ संवत् लिखा रहता है।
इन सिक्कोंके अक्षर आदि बहुत ही बुरी अवस्थामें होते हैं । परन्तु पिछले समयके कुछ सिक्कोंपर ये साफ साफ पढ़े जाते हैं । इससे अनुमान होता है कि उस समयके अधिकारियोंको भी इस बातका भय हुआ होगा कि यदि अक्षरोंकी दशा सुधारी न गई और इसी प्रकार उत्तरोत्तर बिगड़ती गई तो कुछ समय बाद इनका पढ़ना कठिन हो जायगा ।
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