Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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। २५ । (आयुत तुकाराम शमा लटु बी. ए. पी. एच. डी. एम. आर. ए. एस. एम. ए. एस. बी. एम. जी. श्री. एस. प्रोफेसर क्विन्स कॉलेज बनारस.)
(३) जैसे उन्हें श्रादिकाल में खाने, पीने, न्याय, नीति और कानून का ज्ञान मिला, वैसे ही अध्यात्म शास्त्र का ज्ञान भी जीवों ने पाया । और वे अध्यात्म शाब में सब है, जैसे सांख्य योगादि दर्शन और जैनादि दर्शन । तब तो सजनो! आप अवश्य जान गये होंगे कि-जैनमत तब से प्रचलित हुआ है जब से संसार में सृष्टि का आरम्भ हुआ।" (सर्वतन्त्रस्वतन्त्र सत्संप्रदायाचार्य स्वामि राममिश्र शास्त्री ).
(४) वेदों में संन्यास धर्म का नाम-निशान भी नहीं है, उस वक्त में संसार छोड़ कर वन जा कर तपस्या करने की रीति वैदिक ऋषि नहीं जानते थे, वैदिक धर्म में संन्यास आश्रम की प्रवृत्ति ब्राह्मण काल में हुई है कि जो समय करीब ३००० तीन हजार वर्ष जितना पुराणा है, यही राय श्रीयुत रमेशचन्द्रदत्त अपने 'भारतवर्ष की प्राचीन सभ्यता के इतिहास' में लिखते हैं जो नीचे मुजब है-"तब तक दूसरे प्रकार के प्रन्थों की रचना हुई जो 'ब्राह्मण' नाम से पुकारे जाते हैं। इन ग्रंथों में यज्ञों की विधि लिखी है। यह निस्सार और विस्तीर्ण रचना सर्व साधारण के क्षीण शक्ति होने और ब्राह्मणों के स्वमवाभिमान का परिचय देती है। संसार छोड कर बनों में जाने की प्रथा जो पहिले नाम को भी नहीं थी, चल पड़ी, और ब्राह्मणों के अंतिम भाग अर्थात् आरण्यक में बन की विधिक्रियाओं का ही वर्णन है ।" (भा० ५० प्रा० स. इ. भूमिका ) ( तात्पर्य यह कि यह शिक्षा जैनों से ही पाई थी)
(५) "यज्ञ यागादिको में पशुत्रों का वध होकर 'यज्ञार्थ पशुहिंसा' पाजे कल नहीं होती है जैनधर्म ने यही एक बड़ी भारी छाप ब्राह्मण धर्म पर मारी है, पूर्व काल में यह के लिये असंख्य पशुओं की हिंसा होती थी इसके प्रमाण मेघदूत काव्य तथा और भी अनेक प्रन्यों से मिलते हैं, रतिदेव (रंतिदेव ) नामक राजाने यज्ञ किया था उसमें इतना प्रचुर पशुवध हुआ था कि नदी का जल खून से रक्तवर्ण हो गया था उसी समय से इस नदी का नाम रक्तावती 'चर्मवती' प्रसिद्ध हुश्रा, पशुवध से स्वर्ग मिलता है इस विषय में उक्त कथा सांक्षी है, परंतु इस घोर हिंसा का ब्राह्मण धर्म से विदाई ले जाने का श्रेयः जैन के हिस्से में है।" (ता. ३०-९-१९०४ के दिन जैन श्वेताम्बर कोन्फरन्स के तीसरे अधिवेशन में बडौदे में दिये हुए लोकमान्य पालगंगाधर तिलक के भाषण में से)
(६) " बुद्धना धर्मे वेदमार्गनो न इन्कार कार्यों हतो, तेने अहिंसानो आग्रह न हतो, ए महादयारूप, एवं प्रेमरूप धर्म तो जैनोनो ज थयो, आखा हिन्दुस्थानमाथी पशुयज्ञ निकली गयो छ,x+x" (सिद्धान्त सार में प्रो० मणिलाल नेमुमाई )
(७) हिन्दु, ईसाई, मुसल्मान वगैरह ईश्वर, गौड, खुदा वगैरह नामों से एक असाधारण और सर्वविल. भण शक्तिशाली तत्व की कल्पना करते हैं और उसे सर्व सृष्टि का कर्ता हर्ता और नियन्ता मानते हैं ।
(८) हिन्दुस्थान में यह ईश्वरविषयक मान्यता वैदिक युग के अन्त में (वि० पू० १४५६ के लगभग) चलित हुई तब यूरोप में दार्शनिक तत्ववेत्ता विद्वान् एनेक्सागोरसने (वि० पू० ४४४-३५४ ) पहले पहिले ईश्वर को स्थापन किया । इससे यह बात तो निश्चित है कि भगवान महावीर और पार्श्वनाथ के समय
भारतवर्ष में ईश्वरविषयक उपर्युक्त मान्यता चिर प्रचलित हो चुकी थी तब भी जैन दर्शन में इसका बल्कुल स्वीकार नहीं हुआ है, इससे यह बात पाई जाती है कि जैनदर्शन के तत्व ईश्वरीय मान्यता के Kina होने के पहिले ही निश्चित हो चुके थे।
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