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सुत्तत्थं जिणभणिदं जीवाजीवादिबहुविहं अत्थं ।
हेयाहेयं च तहा जो जाणइ सो हुसद्दिट्ठी ॥ ४१ ॥ जीव अजीव से सम्बन्धित बहुत प्रकार का अर्थ जिनेन्द्र भगवान् ने सूत्रों में प्रतिपादित किया है। उसके आधार पर जो हेय (पुद्गल आदि) और अहेय (आत्मा) में भेद कर सकता है वह सम्यग्दृष्टि है।
जं सुत्तं जिणउत्तं ववहारो तह य जाण परमत्थो ।
तं जाणिऊण जोई लहइ सुहं खवइ मलजं ॥ ४२ ॥ जिनेन्द्र भगवान् द्वारा प्रतिपादित सूत्र व्यवहार और परमार्थ के विवेचक हैं। उन्हें जानकर योगी मुनि अक्षय सुख प्राप्त करते हैं और अपने कर्ममल को नष्ट करने में समर्थ होते हैं।
सुत्तत्थपयविणटो मिच्छादिट्ठी हु सो मुणेयव्वो।
खेडे विण कायव्वं पाणिपत्तं सचेलस्स ॥४३॥ जो व्यक्ति जिनसूत्रों के अर्थ से च्युत हैं वे प्रत्यक्ष मिथ्या दृष्टि हैं। ऐसे वस्त्र सहित मुनिवेशधारी को मजाक में भी पाणिपात्र अहिार नहीं देना चाहिए।
हरिहरतुल्लो वि णरो सग्गं गच्छेइ एइ भवकोडी ।
तह विण पावइ सिद्धिं संसारत्थो पुणो भणिदो ॥ ४४ ॥ जो व्यक्ति जिनसूत्रों के अर्थ से च्युत हैं वे भले ही हरि, हर जैसे सामर्थ्यवान हों वे दान पूजा आदि करके स्वर्ग तो जा सकते हैं लेकिन मोक्ष नहीं पा सकते। वे फिर संसार में आते हैं।