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भावेण होइ णग्गो मिच्छत्ताई य दोस चइऊणं ।
पच्छा दव्वेण मुणी पयडदि लिंगं जिणाणाए ॥ २४३ ॥ मिथ्यात्व आदिदोषों को छोड़कर पहले भाव में, आभ्यन्तर में नग्नता आनी चाहिए। जिनेन्द्र भगवान् की आज्ञा है कि उसके बाद ही द्रव्यमुनित्व (बाह्य मुनित्व/ नग्नत्व) को धारण करना चाहिए।
भावो वि दिव्वसिवसुक्खभायणो भाववजिओ सवणो ।
कम्ममलमलिणचित्तो तिरियालयभायणो पावो ॥ २४४ ॥ भाव ही स्वर्ग और मोक्ष के सुख का कारण है। कोई मुनि यदिभाव से रहित है और उसका चित्त कर्ममलसे मलिन है तो वह पापस्वरूप है और उसका स्थान तिर्यंचगति में है।
खयरामरमणुयकरंजलिमालाहिं च संथुया विउला ।
चक्करहररायलच्छी लब्भइ बोही सुभाबेण ॥२४५।। भाव की विशुद्धता से व्यक्ति चक्रवर्ती राजाओं की उस विपुल राजलक्ष्मी को ही नहीं प्राप्त करता जिसको नमन और जिसकी स्तुति विद्याधर, देवों और मनुष्यों के हाथों की अंजलिपंक्ति करती है बल्कि बोधि (रत्नत्रयात्मक मोक्षमार्ग) को भी प्राप्त करता है।
भावं तिविहपयारं सुहासुहं सुद्धमेव णायव्वं ।
असुहं च अट्टरउदं सुह धम्मं जिणवरिदेहिं ॥ २४६ ॥ जिनेन्द्र भगवान् के अनुसार भाव तीन प्रकार के हैं- शुभ, अशुभ और शुद्ध। धर्म ध्यान शुभ और आर्त तथा रौद्र ध्यान अशुभ हैं।