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किं काहिदि बहिकम्मं किं काहिदि बहुविहं च खवणं तु ।
किं काहिदि आदावं आदसहावस्स विवरीदो ॥ ४३४ ॥ बाह्य कर्म, अनेक प्रकार के उपवास आदि तप और आतापन योग आदि कायक्लेश अगर आत्मस्वभाव के विपरीत हैं तो वे क्या करेंगे? उनसे कुछ भी हासिल नहीं होगा।
जदि पढदि बहु सुदाणिय जदि काहिदि बहुविहं च चारित्तं ।
तं बालसुदं चरणं हवेइ अप्पस्स विवरीदं ॥४३५॥ बहुत से शास्त्रों को पढ़ना, बहुत प्रकार से चारित्र का आचरण करना आदि अगर आत्मा के विपरीत हैं तो ये मात्र अज्ञानी की क्रियाएं हैं।
वेरग्गपरो साहू परदव्वपरम्मुहो य जो होदि। संसारसुहविरत्तो सगसुद्धसुहेसु अणुरत्तो ॥४३६॥ गुणगणविहूसियंगो हेयोपादेयणिच्छिदो साहू।
झाणज्झयणे सुरदो सो पावदि उत्तमं ठाणं ।।४३७॥ जो साधु वैराग्य में तत्पर हो, पर-द्रव्यों से विमुख हो, सांसारिक सुखों से विरक्त हो, अपने शुद्ध आत्मसुख में तल्लीन हो, गुणसमूह से विभूषित हो, हेय और उपादेय में भेद करना जानता हो और ध्यान तथा अध्ययन में निमग्न हो उसे मोक्ष मिलता है।
णविएहिं जंणविजइ झाइजइ झाइएहिं अणवरयं।
थुव्वंतेहिं थुणिज्जइ देहत्थं किं पि तं मुणह॥४३८॥ नमन किए जाने योग्य व्यक्ति भी जिसे नमन करते हैं, अनवरत ध्यान किए जाने योग्य व्यक्ति जिसका ध्यान करते हैं और स्तुति किए जाने योग्य व्यक्ति जिसकी स्तुति करते हैं ऐसा वह देह के भीतर क्या है इसे जानना चाहिए।
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