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लिंगपाहुड (लिङ्गप्राभृतम्)
कादूण णमोकारं अरहंताणं तहेव सिद्धाणं ।
वोच्छामि समणलिंगं पाहुडसत्थं समासेण॥४४२॥ . मैं अरिहन्तों को और उसी प्रकार सिद्धों को नमन करके मुनि की पहचान निरूपित करने वाले पाहुड शास्त्र की रचना संक्षेप में कर रहा हूँ। ..
धम्मेण होदि लिंगंण लिंगमत्तेण धम्मसंपत्ती ।
जाणेहि भावधम्मं किं ते लिंगेण कायध्वो॥४४३॥ मुनित्व तो धर्मसहित होता है। सिर्फ़ मुनिवेश से धर्म की प्राप्ति नहीं होती। धर्म तो भावस्वरूप है। उसे जानना चाहिए। अकेले वेश से कुछ नहीं होता। इसलिए उससे क्या लेना देना?
जो पावमोहिदमदी लिंगं घेत्तूण जिणवरिंदाणं।
उवहसदि लिंगिभावं लिंगम्मिय णारदो लिंगी ॥४४४॥ पाप से मोहित बुद्धि का व्यक्ति तीर्थंकर भगवान् के वेश को ग्रहण करके मुनिभाव का सिर्फ़ उपहास ही करता है। वह मुनियों में नारद है। वह मुनियों में विदूषक है।
णच्चदि गायदि दावं वायं वाएदि लिंगरूवेण।
सो पावमोहिदमदी तिरिक्खजोणी ण सो समणो ॥४४५॥ जो व्यक्ति श्रमण वेश धारण करके नाचता, गाता और वाद्ययंत्र बजाता फिरता है वस्तुतः उसकी बुद्धि पाप से मोहित है। वह पशु है। श्रमण नहीं है।
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