Book Title: Atthpahud
Author(s): Kundkundacharya, Jaykumar Jalaj, Manish Modi
Publisher: Hindi Granthratna Karyalay

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Page 126
________________ आदेहि कम्मगंठी जा बद्धा विसयरागरंगेहिं। तं छिंदति कयत्था तवसंजमसीलयगुणेण॥४६०॥ विषयों के रागरंग से आत्मा में बँधी हुई कर्म की गाँठ को कृतार्थ (श्रेष्ठ) व्यक्ति तप, संयम और शील से प्राप्त हुए गुण के द्वारा खोलते हैं। उदधी वरदणभरिदो तवविणयंसीलदाणरयणाणं। सोहेंतो य ससीलो णिव्वाणमणुत्तरं पत्तो॥४६१॥ समुद्र कितना ही रत्नों से भरा हुआ हो, पर वह जल से ही शोभा पाता है। इसी तरह तप, विनय, दान आदि रत्नों से भरी हुई आत्मा शील से ही शोभा पाती है और निर्वाण को, निर्वाण जिससे श्रेष्ठ और कुछ नहीं है, प्राप्त करती है। सुणहाण गद्दहाण य गोवसुमहिलाण दीसदे मोक्खो। जे सोधंति चउत्थं पिच्छिज्जंता जणेहि सव्वेहिं ॥४६२॥ श्वान, गर्दभ, गाय आदि पशु तथा स्त्री को मोक्ष होता देखा गया है क्या? वस्तुतः मोक्ष उन्हें ही होता देखा गया है जिन्हें चौथे पुरुषार्थ की तलाश होती है। जइ विसयलोलएहिं णाणीहि हविज साहिदो मोक्खो। तो सो सच्चइपुतो दसपुव्वीओ वि किं गदो णरयं ॥४६३॥ यदि विषयलोलुप ज्ञानियों को मोक्ष मिलना सम्भव होता तो दस पूर्वजन्मों का ज्ञाता सात्यकि पुत्र (रुद्र) नरक क्यों गया होता ? जइ णाणेण विसोहो सीलेण विणा बुहेहिं णिद्दिट्ठो। दसपुब्वियस्स भावो य ण किं पुणु णिम्मलो जादो॥४६४॥ अगर विद्वानों ने शील के बिना कोरे ज्ञान से ही भाव का निर्मल होना बताया होता तो दस पूर्व जन्मों के ज्ञाता रुद्र का भाव क्यों निर्मल नहीं हुआ होता? 125

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