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लावण्णसीलकुसलो जम्ममहीरुहो जस्स सवणस्स।
सो सीलो स महप्पा भमिज गुणवित्थरं भविए॥४६६ ॥ जिस मुनि के जन्म रूपी वृक्ष को लावण्य और शील ने कुशल बना दिया है वह शीलवान और महात्मा है। उसके गुणों का विस्तार पूरे संसार में होता है।
णाणं झाणं जोगो दंसणसुद्धीय वीरियायतं।
सम्मतदसणेण य लहंति जिणसासणे बोहिं॥५००॥ ज्ञान, ध्यान, योग और दर्शन की शुद्धता तो शक्ति पर निर्भर है। लेकिन जिन शासन के अनुसार बोधि अर्थात् रत्नत्रय की प्राप्ति तो सम्यग्दर्शन से हो जाती है।
जिणवयणगहिदसारा विसयविरता तवोधणा धीरा।
सीलसलिलेण ण्हादा ते सिद्धालयसुहं जंति॥५०१॥ जिनेन्द्र भगवान् के वचनों के सार को हृदयंगम करने वाले, विषयों से विरक्त, तपोधन और धैर्यशाली मुनि शील के जल में स्नान करके ही सिद्धालय (सिद्धों का निवास स्थल) का सुख प्राप्त करते हैं।
सव्वगुणखीणकम्मा सुहदुक्खविवज्जिदा मणविसुद्धा।
पप्फोडियकम्मरया हवंति आराहणापयडा ॥५०२॥ समस्त गुणों (मूल गुण और उत्तर गुण) की सहायता से कर्मों का क्षय करना, सुख दुःख से परे होने की स्थिति, विशुद्ध मन की प्राप्ति और कर्मों की धूल उड़ा देना- यह आराधना का सम्पूर्णता में प्रकट होना है।
अरहंते सुहभत्ती सम्मतं दंसणेण सुविसुद्धं।
सीलं विसयविरागोणाणं पुण केरिसंभणिद ॥५०३॥ अरिहन्त के प्रति शुभ भक्ति ही दर्शन से विशुद्ध सम्यक्त्व है। विषयों से विरक्त होना ही शील है। वही ज्ञान भी है। अन्यथा ज्ञान और किसे कहते हैं ?
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