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इन पाँच विषयों में रागद्वेष का न होना ।
ब्रह्मचर्य महाव्रत की पाँच भावनाएं : स्त्रियों के अंग देखने का त्याग, पूर्व भोगों को याद न करना, स्त्रियाँ जहाँ रहती हों वहाँ न रहना, शृंगार कथा कहने / करने / सुनने का त्याग और पौष्टिक भोजन करने का त्याग ।
पाँच समितियाँ : ईर्ष्या, भाषा, एषणा, आदान निक्षेपण और प्रतिष्ठापना । पाँच प्रकार का विनय : लोकानुवृत्ति, अर्थनिमित्तक, कामतंत्र, भय और मोक्षविनय ।
अथवा
ज्ञान विनय, दर्शन विनय, चारित्र विनय, तप विनय और उपचार विनय । उपचार विनय के तहत
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को आता देख आसन से उठना, कायोत्सर्ग आदि कृतिकर्म करना, जुड़े हाथों को अपने माथे पर रखकर नमन करना, उनके सामने जाना, अनुकूल
वचन कहना ।
बाईस परिषह : मार्ग से च्युत न होने और कर्मों की निर्जरा के लिए जिन्हें सहन करना होता है उन्हें परिषह कहते हैं। क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, मशक दंश, नग्नता, अरति, स्त्री, चर्या, निषधा, शैया, आक्रोश, वध, याचना, अलाभ, रोग, तृणस्पर्श, मल, सत्कार - पुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और अदर्शन । बारह प्रकार के तप : अनशन, अवमौदार्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्त शैयासन, कायक्लेश, ये छह बाह्य तप । और
प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग, ध्यान- ये छह आभ्यन्तर
तप ।
बारह अनुप्रेक्षाएं : अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आस्त्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ और धर्म ।
मार्गणा स्थान : मार्गणा का अर्थ है अन्वेषण / खोजना / गवेषणा जिनके द्वारा चौदह गुणस्थानों का अन्वेषण किया जाता है उन्हें मार्गणा कहते हैं। इनकी संख्या भी चौदह है - गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान,
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