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१. शतयोजन सुभिक्षता, २. आकाशगमन, ३. प्राणिवध अभाव, ४. कवलाहार अभाव, ५. उपसर्ग अभाव, ६. चतुर्मुखत्व, ७. सर्वविद्याप्रभुत्व, ८. छायारहितत्व, ६. लोचन निस्पन्दन रहितत्व, १०. केशनखवृद्धि रहितत्व, ११. अठारह महाभाषाओं से युक्त दिव्य ध्वनि।
१. सर्वजीव मैत्रीभाव, २. सर्वऋतु फल पुष्प, ३. पृथ्वी का दर्पणवत् होना, ४. मंद सुगन्धित हवा का चलना, ५. सम्पूर्ण संसार में आनन्द का संचार, ६. भूमि का कंटकादि से रहित होना, ७. देवों द्वारा गन्धोदक वर्षा, ८. विहार के समय देवों द्वारा चरणकमलों के नीचे स्वर्णकमलों की रचना, ६. भूमि का धनधान्य निष्पत्ति सहित होना, १०. दिशाओं और आकाश का निर्मल होना, ११. देवों का आह्वान शब्द होना, १२. धर्मचक्र का आगे चलना, १३. अष्ट मंगल द्रव्यों का होना । इस प्रकार १०+११+१३=३४ अतिशय
छह संहनन वाले जीव : हड्डियों के बन्धन को, उनके संचय और जोड़ को संहनन कहते हैं। इसके आधार पर जीवों के छह भेद माने गए हैं- वज्रवृषभ नाराच, वज्रनाराच, सनाराच, अर्द्धनाराच, कीलकशरीर संहनन और असम्प्राप्ता सृपाटिका।
छह द्रव्य : जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल।
छह अनायतन : मिथ्या देव, मिथ्या देवों के सेवक, मिथ्या तप, मिथ्या तपस्वी, मिथ्या शास्त्र और मिथ्या शास्त्रों के धारक।
तीन गुप्तियाँ : संसार के कारणों से आत्मा की रक्षा करने वाली मन, वचन और काय की गुप्ति।
तेरह प्रकार की क्रियाएं : पंच परमेष्ठी को नमस्कार की पाँच क्रियाएं, छह आवश्यक क्रियाएं, एक निषिधिका (जिन मन्दिर में प्रवेश के वक्त आज्ञार्थ निःसही शब्द तीन बार बोलना अथवा सम्यग्दर्शन-ज्ञान चारित्र में स्थिर रहने के लिए निःसही कहना) क्रिया और एक आसिका (जिन मन्दिर से बाहर आते वक्त विदा के लिए अनुमति हेतु, विनयपूर्वक आसिका शब्द बोलना अथवा पापों से मन मोड़ने को आसिका कहना) क्रिया। इस प्रकार कुल तेरह क्रियाएं।
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