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सीलपाहुड (शीलप्राभृतम्)
वीरं विसालणयण रतुप्पलकोमलस्समप्पायं।
तिविहेण पणमिऊणं सीलगुणाणं णिसामेह॥४६४॥ भगवान् महावीर को, जिनके नेत्र विशाल हैं और कोमल चरण रक्तकमल के समान हैं, मैं मन वचन काय से नमन करके शील गुणों का वर्णन करता हूँ।
सीलस्स य णाणस्स य जत्थि विरोहो बुधेहिं णिहिट्ठो।
णवरि य सीलेण विणा विसया णाणं विणासंति॥४६५॥ विद्वानों का मत है कि शील और ज्ञान में आपस में कोई विरोध नहीं है। इतना ज़रूर है कि अगर शील न हो तो इन्द्रियों के विषय ज्ञान को नष्ट कर देते हैं। .
दुक्खे णज्जदिणाणं णाणं णादूण भावणा दुक्खं।
भावियमई व जीवो विसयेसु विरज्जए दुक्खं॥४६६॥ ज्ञान की प्राप्ति मुश्किल से होती है। प्राप्ति हो जाय तो बार-बार अनुभव में लेना मुश्किल से होता है। अनुभव में ले आएं तो उसे इन्द्रिय विषयों में जाने से रोकना मुश्किल से होता है।
दाव ण जाणदिणाणं विसयबलो जाव वट्टए जीवो।
विसए विरत्तमेतो ण खवेदि पुराइयं कम्मं॥४६७॥ जीव जब तक विषयों के वशीभूत रहता है तब तक ज्ञान को नहीं जानता और ज्ञान को जाने बिना अकेले विषयों से विरक्त होने मात्र से (जीव के) पूर्व के बँधे हुए कर्मों का क्षय नहीं होता।
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