Book Title: Atthpahud
Author(s): Kundkundacharya, Jaykumar Jalaj, Manish Modi
Publisher: Hindi Granthratna Karyalay

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Page 122
________________ णाणस्स णत्थि दोसो कुप्पुरिसाणं वि मंदबुद्धीणं । जेागव्विदा होणं विसएसु रज्जंति ॥ ४७३ ॥ अगर कोई व्यक्ति ज्ञान से गर्वित होकर भी विषयों में रमता है तो इसमें ज्ञान का दोष नहीं है। उस मूर्ख कुपुरुष का ही दोष है । णाणेण दंसणेण य तवेण चरिएण सम्मसहिए । होहदिं परिणिव्वाणं जीवाण चरित्तसुद्धाणं ॥ ४७४ ॥ ज्ञान, दर्शन और तप को सम्यक्त्व के साथ चारित्र में ढाला जाय तो ऐसे चारित्र से शुद्ध हुए जीवों को निर्वाण की प्राप्ति होती है । सीलं रक्खंताणं दंसणसुद्धाण दिढचरित्ताणं । अत्थि धुवं णिव्वाणं विसएसु विरत्तचित्ताणं ॥ ४७५ ।। जिन व्यक्तियों का चित्त विषयों से विरक्त है, जो शील की रक्षा करते हैं और दर्शन से शुद्ध तथा चारित्र से दृढ़ हैं वे निश्चित रूप से निर्वाण को प्राप्त करते हैं । विसएस मोहिदाणं कहियं मग्गं पि इदरिसीणं । उम्मग्गं दरिसीणं णाणं पि णिरत्थयं तेसिं ॥ ४७६ ॥ विषयों में आसक्त व्यक्ति अगर सन्मार्ग दिखाने वाले हों तो उनके लिए फिर भी रास्ता है, फिर भी उनकी सार्थकता है । लेकिन कुमार्ग दिखाने वालों के लिए तो ज्ञान होने का कोई अर्थ ही नहीं है । कुमयकुसुदपसंसा जाणंता बहुविहाई सत्थाई । सीलवदणाणरहिदा ण हु ते आराधया होंति ॥ ४७७ ॥ कुमत और कुशास्त्रों के प्रशंसक भले ही बहुत प्रकार के शास्त्रों को जानते हों लेकिन वास्तव वेशीव्रत और ज्ञान से रहित हैं। वे शीलव्रत और ज्ञान के आराधक नहीं हैं। 121

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