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एवं सहिओ मुणिवर संजदमज्झम्मि वट्टदे णिच्वं । बहुल पि जाणमा भावविणट्ठो ण सो समणो ॥ ४६०॥
पूर्वोक्त प्रकार की प्रवृत्तियों से युक्त जो तथाकथित श्रमण संयमी मुनिवरों के बीच भी बराबर बना रहता है, बहुत से शास्त्रों को भी जानता है लेकिन भावों से रहित होता है, वह श्रमण नहीं है।
दंसणणाणचरित्ते महिलावग्गम्मि देदि वीसट्टो |
पासत्थ वि ह णियट्ठो भावविणट्ठो ण सो समणो ॥ ४६१ ॥
जो महिलावर्ग को दर्शन, ज्ञान, चारित्र का प्रतिपादन करता हुआ उन्हें विश्वास में ले लेता है वह साफ़ तौर पर पार्श्वस्थ (भ्रष्ट मुनि) से भी गया गुज़रा और खतरनाक है । वह भाव से रहित है । वह श्रमण नहीं है।
पुंच्छलिघरि जो भुंजदि णिच्चं संथुणदि पोसए पिंडं । पावदि बालसहावं भावविणट्ठो ण सो सवणो ॥ ४६२ ॥
श्रमणवेश धारण करके भी जो व्यभिचारिणी स्त्री के घर आहार ले लेता है, उसकी प्रशंसा करता है और इस प्रकार अपने शरीर का पालन पोषण करता है वह अज्ञानी है। उसके भाव नष्ट हो चुके हैं। वह श्रमण नहीं है।
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इय लिंगपाहुडमिणं सव्वंबुद्धेहिं देसियं धम्मं ।
पाले कट्ठसहियं सो गाहदि उत्तमं ठाणं ॥ ४६३॥
इस प्रकार इस लिंग पाहुड के धर्म का उपदेश सर्वज्ञानियों (गणधर आदि) ने दिया है। जो इसे कष्ट उठाता हुआ बड़े जतन से पालता है उसे मोक्ष मिलता है।