Book Title: Atthpahud
Author(s): Kundkundacharya, Jaykumar Jalaj, Manish Modi
Publisher: Hindi Granthratna Karyalay

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Page 118
________________ गिण्हदि अदत्तदाणं परणिंदा वि य परोक्खदूसेहिं। जिणलिंगं धारंतो चोरेण व होइ सो समणो॥४५५।। श्रमणवेश धारण करके भी जो बिना दिया दान लेता है, पीठ पीछे परनिन्दा करता है वह श्रमण नहीं है। चोर के समान है। उप्पडदि पडदि धावदि पुढवीओ खणदि लिंगरूवेण। इरियावह धारतो तिरिक्खजोणी ण सो समणो॥४५६।। जो श्रमणवेश और ईर्यापथ धारण करने के बावजूद रास्ते को शोधकर चलने के स्थान पर दौड़ता हुआ, उछलता हुआ, गिरता पड़ता हुआ चलता है वह पशु है। श्रमण नहीं है। बधो णिरओ संतो सस्सं खंडेदि तह य वसुहं पि। छिंददि तरुगण बहुसो तिरिक्खजोणी ण सो समणो॥४५७।। जो श्रमणवेश धारण करके भी यह नहीं मानता कि वनस्पति की हिंसा से कर्मबन्ध होता है, इसलिए अनाज को कूटता है, वृक्षों को छेदता है, इसी प्रकार भूमि को खोदता है, वह पशु है। श्रमण नहीं है। रागं करेदि णिच्चं महिलावगं परं च दूसेदि। दंसणणाणविहीणो तिरिक्खजोणी ण सो समणो॥४५८॥ श्रमणवेश धारण करके भी जो दर्शन और ज्ञान से रहित है और खुद तो महिला वर्ग के प्रति रागग्रस्त रहता है लेकिन दोष दूसरों को लगाता है वह पशु है, श्रमण नहीं है। पव्वजहीणगहिणं णेहं सीसम्मि बट्टदे बहुसो। ..... आयारविणयहीणो तिरिक्खजोणी ण सो समणो॥४५॥ श्रमणवेश धारण करके भी जो दीक्षारहित गृहस्थों तथा शिष्यों पर बार बार स्नेहवान होता है और आचार एवं विनय से रहित है वह पशु है। श्रमण नहीं है। 117

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