Book Title: Atthpahud
Author(s): Kundkundacharya, Jaykumar Jalaj, Manish Modi
Publisher: Hindi Granthratna Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 111
________________ ते धण्णा सुकयत्था ते सूरा ते वि पंडिया मणुया । सम्मत्तं सिद्धियरं सिविणे विण मइलियं जेहिं ॥ ४२४ ॥ जिन मनुष्यों ने मोक्षदायक सम्यक्त्व को स्वप्न में भी कभी मलिन नहीं किया वे धन्य हैं, कृतार्थ हैं, शूरवीर और पण्डित हैं और वे ही मनुष्य हैं। हिंसारहिए धम्मे अट्ठारहदोसवज्जिए देवे । णिग्गंथे पव्वयणे सद्दहणं होइ सम्मत्तं ॥ ४२५॥ हिंसा रहित धर्म में, अठारह दोषों से रहित देव में और मोक्षमार्ग के उपदेशक गुरु में श्रद्धा रखना ही सम्यक्त्व है। जहजायरूवरूवं सुसंजयं सव्वसंगपरिचत्तं । लिंगंण परावेक्खं जो मण्णइ तस्स सम्मत्तं ॥ ४२६।। जैसा जन्म हुआ वैसा ही, लौकिक जनों की संगति से दूर, पर-द्रव्य से किसी प्रकार की अपेक्षा नहीं- इस मुनिवेश में श्रद्धा रखना ही सम्यक्त्व है। कुच्छियदेवं धम्मं कुच्छियलिंगं च वंदए जो दु। लज्जाभयगारवदो मिच्छादिट्ठी हवे सो हु।। ४२७॥ जो व्यक्ति लज्जा, भय अथवा गौरव के कारण कुत्सित देवता, कुत्सित धर्म और कुत्सित मुनिवेश की वन्दना करता है वह स्पष्टतः मिथ्या दृष्टि है। सपरावेक्खं लिंग राई देवं असंजयं वंदे। मण्णइ मिच्छादिट्ठी ण हु देवं मण्णदि सुद्धसम्मत्तो।। ४२८॥ जो व्यक्ति अपनी अथवा परायी लौकिक अपेक्षा से वेश धारण करने वाले, रागग्रस्त देवताओं और असंयमित व्यक्तियों की वन्दना करता है, उनके प्रति श्रद्धा रखता है वह मिथ्या दृष्टि है। शुद्ध सम्यग्दृष्टि स्पष्टतः इन्हें नहीं मानता। 110

Loading...

Page Navigation
1 ... 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146