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एवं जिणेहि कहियं सवणाणं सावयाण पुण सुणसु ।
संसारविणासयरं सिद्धियरं कारणं परमं ॥४२०॥ पूर्वोक्त उपदेश तो जिनेन्द्र भगवान् ने श्रमणों (मुनियों) को दिए हैं। अब श्रावकों को दिए गए उनके उन उपदेशों पर ध्यान दें जिनसे जन्ममरण का चक्र खत्म होता है और सिद्धि (मोक्ष) प्राप्त होती है।
गहिदूण य सम्मत्तं सुणिम्मलं सुरगिरीव णिकपं ।
तं झाणे झाइजइ सावय दुक्खक्खयट्ठाए ॥४२१॥ हे श्रावको, (सबसे पहले) अत्यन्त निर्मल और सुमेरु पर्वत की तरह अविचल सम्यग्दर्शन को ग्रहण करना और दुःखों के विनाश के लिए उसे सदैव अपने ध्यान में धारण किए रहना।
सम्मत्तं जो झायइ सम्माइट्ठी हवेइ सो जीवो ।
सम्मत्तपरणिदो उण खवेइ दुट्ठट्ठकम्माणि ॥४२२॥ जो जीव सम्यक्त्व (सम्यग्दर्शन) का ध्यान करता है वह सम्यग्दृष्टि हो जाता है। फिर उस सम्यग्दृष्टि जीव के आठ दुष्ट कर्मों का क्षय हो जाता है।
किं बहुणा भणिएणं जे सिद्धा णरवरा गए काले ।
सिज्झिहहि जे वि भविया तं जाणह सम्ममाहप्पं ॥ ४२३ ।। अधिक कहने से क्या ? इतना ही समझ लीजे कि जो श्रेष्ठ मनुष्य अतीत में सिद्ध हुए हैं और भविष्य में होंगे उन सब के पीछे सम्यक्त्व की ताकत है।
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