________________
सव्वासवणिरोहेण कम्मं खवदि संचिदं ।
जोत्थो जाए जोदि जिणदेवेण भासियं ॥ ३६५॥
ध्यान में अवस्थित योगी पहले तमाम आस्रवों का निरोध करता है। यानी संवरयुक्त होता है। फिर पूर्वसंचित कर्मों का क्षय करता है। वस्तुतः इस सम्बन्ध में वह जिनेन्द्र भगवान् के मन्तव्य को जानता है ।
जो तो ववहारे सो जोदि जग्गए सकज्जम्मि ।
जो जग्गदि ववहारे सो सुत्तो अप्पणो कज्जे || ३६६ ॥
जो योगी व्यवहार के मामले में सोया हुआ होता है वह आत्म स्वभाव को जानने के मामले में जागृत रहता है। इसके विपरीत जो व्यवहार के मामले में जागृत होता है वह अपनी आत्मा के मामले में सोया हुआ रहता है।
इय जाणिऊण जोदि ववहारं चयदि सव्वहा सव्वं । झायदि परमप्पाणं जह भणियं जिणवरिदेहिं ॥ ३६७॥ ऐसा (पूर्वोक्त को) जानकर योगी तमाम व्यवहारों को सब प्रकार से त्याग देता है और जिस प्रकार जिनेन्द्र भगवान् ने कहा है उसी प्रकार परमात्मा का ध्यान करता है ।
पंचमहव्वयजुत्तो पंचसु समिदीसु तीसु गुत्तीसु । रयणत्तयसंजुत्तो झाणज्झयणं सदि कुणह ॥ ३६८ ॥
पाँच महाव्रतों, पाँच समितियों, तीन गुप्तियों और तीन रत्नों (सम्यग्दर्शन - ज्ञानचारित्र - रूप-रत्नत्रय) से संयुक्त होकर हे मुनिजनो, सदैव ध्यान और शास्त्र का अभ्यास करना चाहिए ।
96