Book Title: Atthpahud
Author(s): Kundkundacharya, Jaykumar Jalaj, Manish Modi
Publisher: Hindi Granthratna Karyalay

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Page 105
________________ सुहेण भाविदं णाणं दुहे जादे विणस्सदि । तम्हा जहाबलं जोदि अप्पा दुक्खेहि भावए ॥३६७॥ सुख से अर्जित ज्ञान दुःख आते ही नष्ट हो जाता है। इसलिए योगी को चाहिए कि वह यथाशक्ति दुःख अर्थात् तपश्चरण आदि के कष्टों के साथ आत्मा का चिन्तवन करे। आहारासणणिद्दाजयं च कादूण जिणवरमएण। झायव्वो णियअप्पा णादणं गुरूपसाएण ॥३६८॥ जिनमत के अनुसार आहार, आसन और निद्रा को जीतकर और गुरुप्रसाद से अपनी आत्मा को जानकर उसका (अपनी आत्मा का) ध्यान करना चाहिए। अप्पा चरित्तवंतो दंसणणाणेण संजुदो अप्पा । सो झायव्वो णिच्वं णादूणं गुरूपसाएण॥३६६ ॥ आत्मा दर्शन ज्ञान चारित्रमय है। इस प्रकार उसे गुरुप्रसाद से जानकर सदैव उसका ध्यान करें। दुक्खे णजइ अप्पा अप्पा णादूण भावणा दुक्खं । भावियसहावपुरिसो विसयेसु विरच्चए दुक्खं ॥४००॥ आत्मा को जानना कष्टसाध्य है। उसे जानकर उसका भावन करना यानी उसे सतत अनुभव करना भी कष्टसाध्य है। फिर उसे अनुभव में उतारने वाले व्यक्ति का विषयों से निरन्तर विरक्त रहना भी कष्टसाध्य है। ताम ण णज्जइ अप्पा विसएसु णरो पवट्टए जाम । विसए विरत्तचित्तो जोई जाणेइ अप्पाणं ॥४०१॥ मनुष्य जब तक इन्द्रिय विषयों में प्रवृत्त है तब तक वह आत्मा को नहीं जानता। विषयों से विरक्त चित्त योगी ही आत्मा को जानता है। 104

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