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अप्पा णादूण णरा केई सब्भावभावपन्भट्ठा।
हिंडंति चाउरंगं विसएसु विमोहिया मूढा ॥४०२॥ कई मनुष्य आत्मा को जानने के बाद श्रेष्ठ आत्मभाव से च्युत हो जाते हैं। विषयों में विमोहित हुए वे मूर्ख इस चार गति रूप संसार में ही परिभ्रमण करते रहते हैं।
जे पुण विसयविरत्ता अप्पा णादूण भावणासहिया ।
छंडंति चाउरंगं तवगुणजुत्ता ण संदेहो ॥ ४०३॥ विषयों से विरक्त और तप एवं गुणों से सम्पन्न जो व्यक्ति आत्मा को जानकर निरन्तर उसका भावन करते हैं वे संसार से मुक्त हो जाते हैं।
परमाणुपमाणं वा परदव्वे रदि हवेदि मोहादो।
सो मूढो अण्णाणी आदसहावस्स विवरीओ ॥४०४॥ जिस व्यक्ति में पर-द्रव्य के प्रति मोहवश परमाणु बराबर भी राग है वह व्यक्ति अज्ञानी और मूर्ख है। वह आत्म स्वभाव के विपरीत है।
अप्पा झायंताणं दसणसुद्धीण दिढचरित्ताणं ।
होदि धुवं णिव्वाणं विसएसु विरत्तचित्ताणं ॥४०५॥ जो व्यक्ति सम्यग्दर्शन से शुद्ध हैं, दृढ़ चारित्र के धनी हैं, आत्मा का ध्यान करते हैं और विषयों से विरक्त चित्त हैं उन्हें निश्चय ही मोक्ष मिलता है।
जेण रागो परे दव्वे संसारस्स हि कारणं ।
तेणावि जोइणो णिच्चं कुज्जा अप्पे सभावणं ॥ ४०६॥ पर-द्रव्य में राग होना संसार का यानी जन्ममरण के चक्र का कारण है। इसलिए योगी सदैव अपनी आत्मा में ही अपने भाव को केन्द्रित रखते हैं।
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