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जंजाणिऊण जोई परिहारं कुणदि पुण्णपावाणं ।
तं चारित्तं भणिद अवियप्प कम्मरहिएहिं ॥३७७॥ पूर्वोक्त जीव-अजीव भेद रूप सत्यार्थ सम्यग्ज्ञान को जानकर योगी पुण्य और पाप का परित्याग करता है। घाति कर्मों से रहित सर्वज्ञ भगवान् इसे ही निर्विकल्प सम्यक् चारित्र कहते हैं।
जो रयणत्तयजुत्तो कुणदि तवं संजदो ससत्तीए ।
सो पावदि परमपयं झायंतो अप्पयं सुद्धं ॥ ३७८ ॥ जो संयमी मुनि रत्नत्रय से संयुक्त होकर अपनी शक्ति के अनुसार तप करता है वह शुद्ध आत्मा का ध्यान करता हुआ परम पद निर्वाण को प्राप्त करता है।
तिहि तिण्णि धरवि णिच्चं तियरहिओ तह तिएण परियरिओ।
दोदोसविप्पमुक्को परमप्पा झायए जोई ॥ ३७६ ॥ योगी तीन (तीनों ऋतुओं) में, तीन (मन, वचन, काय) के द्वारा तीन (माया, मिथ्यात्व
और निदान रूपी तीन शल्य) से रहित और तीन (दर्शन, ज्ञान, चारित्र) से मण्डित होकर दो (राग, द्वेष) से मुक्त होता है और परमात्मा का ध्यान करता है।
मयमायकोहरहिओ लोहेण विवजिओ य जो जीवो।
णिम्मलसहावजुत्तो सो पावइ उत्तमं सोक्खं ॥ ३८०॥ जो जीव क्रोध, मद, माया और लोभ से रहित होता है और जिसका स्वभाव निर्मल होता है उसे उत्तम सुख मिलता है।