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चरणं हवइ सधम्मो धम्मो सो हवदि अप्पसमभावो ।
सो रागरोसरहिओ जीवस्स अणण्णपरिणामो॥३८५॥ आत्मा का स्वधर्म सम्यक् चारित्र है। उसमें सब जीवों के प्रति समभाव और राग रोष से रहित जीव का अनन्य भाव ( एकात्म भाव) होता है।
जह फलिहमणि विसुद्धो परदव्वजुदो हवेइ अण्णं सो ।
तह रागादिविजुत्तो जीवो हवदि हु अणण्णविहो ॥३८६॥ जैसे स्फटिक मणि निर्मल होती है। लेकिन परद्रव्य के संयोग से अन्य-अन्य सी हो जाती है वैसे ही आत्मा निर्मल है पर रागद्वेष आदि भावों से संयुक्त होने पर अन्यअन्य सी हो जाती है।
देवगुरुम्मि य भत्तो साहम्मियसंजदेसु अणुरत्तो ।
सम्मत्तमुव्वहंतो झाणरओ होदि जोई सो॥३८७॥ सम्यग्दर्शन को धारण करते हुए और ध्यान में लीन रहते हुए भी देव तथा गुरु में योगी की भक्ति और समानधर्मा संयमी मुनियों के प्रति अनुरक्ति बनी रहती है।
उग्गतबेणण्णाणी जं कम्मं खवदि भवहि बहुएहिं ।
तंणाणी तिहि गुत्तो खवेइ अंतोमुहुत्तेण ॥३८८॥ अज्ञानी मुनि अनेकानेक जन्मों में जितना कर्मक्षय करता है उतना कर्मक्षय तो ज्ञानी मुनि तीन गुप्ति सहित यानी मन वचन काय की प्रवृत्तियों के निग्रह के साथ अन्तर्मुहूर्त में कर लेता है।
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