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तच्चरुई सम्मत्तं तच्चग्गहणं च हवदि सण्णाणं । चारित्तं परिहारो परूवियं जिणवरिदेहिं ॥ ३७३ ॥
जिनेन्द्र भगवान् का कथन है कि तत्त्वों (जीव, अजीव, आस्त्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष) के प्रति श्रद्धा सम्यक्त्व है, तत्त्वों को जानना सम्यग्ज्ञान है और परद्रव्य का परिहार चारित्र है ।
दंसणसुद्धो सुद्धो दंसणसुद्धो लहेदि णिव्वाणं । दंसणविहीणपुरिसो ण लहदि तं इच्छियं लाहं ॥ ३७४॥
जो व्यक्ति दर्शन से शुद्ध यानी सम्यग्दर्शन का धनी है वही शुद्ध है । उसी को निर्वाण (मोक्ष) की प्राप्ति होती है । सम्यग्दर्शन से रहित व्यक्ति को अभीप्सित लाभ अर्थात् मोक्ष नहीं मिलता।
इय उवएसं सारंजरमरणहरं खु मण्णए जं तु ।
तं सम्मत्तं भणिद सवणाणं सावयाणं पि ॥ ३७५ ॥
यही (पूर्वोक्त) उपदेश का सार है। बुढ़ापे और मौत को हरने वाला है। इसे मानना अर्थात् इस पर श्रद्धा रखना ही सम्यक्त्व है । सार की यह बात मुनि और श्रावक दोनों वर्गों के लिए है ।
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जीवाजीवविहत्ती जोई जाणेदि जिणवरमएण ।
तं णाणं भणिद अवियत्थं सव्वदरसीहिं ॥ ३७६ ॥ योगी मुनि जीव और अजीव पदार्थ के भेद को जिनेन्द्र भगवान् के मतानुसार जानता है। यह उसका सम्यग्ज्ञान है । सर्वदर्शी जिनेन्द्र भगवान् द्वारा किया गया यह सत्य कथन है।