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जह सलिलेण ण लिप्पदि कमलिणिपत्तं सहावपयडीए । तह भावेण ण लिप्पदि कसायविसएहिं सप्पुरिसो ॥ ३२४ ॥ जैसे कमलिनी का पत्ता स्वभाव से ही जल से लिप्त नहीं होता वैसे ही श्रेष्ठ (सम्यग्दृष्टि सम्पन्न) व्यक्ति भी स्वभाव से ही क्रोध आदि कषायों और इन्द्रिय विषयों से लिप्त नहीं होते ।
ते च्चिय भणामि हं जे सयलकलासीलसंजमगुणेहिं । बहुदोसाणावासो सुमलिणचित्तो ण सावयसमो सो ॥ ३२५ ॥
वे (भाव और सम्यग्दृष्टि युक्त) व्यक्ति सम्पूर्ण कलाओं, शील और संयम से सम्पन्न होते हैं। उन्हीं को मैं मुनि कहता हूँ । जिनके चित्त मैले एवं बहुत से दोषों के घर हैं वे तो (मुनि वेश के बावजूद ) श्रावक के समान भी नहीं हैं।
ते धीरवीरपुरिसा खमदमखग्गेण विप्फुरंतेण ।
दुज्जयपबलबलुद्धरकसायभड णिज्जिया जेहिं ॥ ३२६ ॥
वे व्यक्ति वास्तविक धीर, वीर हैं जिन्होंने क्षमा और इन्द्रिय निग्रह के तीक्ष्ण खड्ग से दुर्जेय, भारी और धृष्ट कषाय रूपी सुभटों को जीता है।
णा ते भयवंता दंसणणाणग्गपवरहत्थेहिं । बिसयमयरहरपडिया भविया उत्तारिया जेहिं ॥ ३२७॥
वे सत् पुरुष (मुनि) धन्य हैं जिन्होंने विषयों के समुद्र में पड़े हुए भव्य जीवों को सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान रूपी अपने बलवान हाथों से पार उतारा है।
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