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मायावेल्लि असेसा मोहमहातरुवरम्मि आरूढा | विसयविसपुप्फुल्लिय लुणंति मुणि णाणसत्थेहिं ॥ ३२८ ॥
मोह रूपी महावृक्ष पर चढ़ी हुई तथा विषय रूपी विष के फूलों से लदी हुई माया रूपी लता को मुनिगण अपने ज्ञान रूपी शस्त्र से काट डालते हैं ।
मोहमयगारवेहिं य मुक्का जे करुणभावसंजुत्ता । ते सव्वदुरियखंभं हणंति चारित्तखग्गेण ॥ ३२६ ॥ मुनि मोह, मद तथा गौरव से परे हैं और करुणाभाव से भरे हुए हैं वे अपने सम्यक् चारित्र के खड्ग से सर्व पापों के स्तम्भ को नष्ट कर देते हैं।
गुणगणमणिमालाए जिणमयगयणे णिसायरमुणिंदो । तारावलिपरियरिओ पुण्णिमइंदुव्व पवणपहे ॥ ३३०॥
जैसे आकाशमार्ग में नक्षत्रसमूह से वेष्टित पूर्णिमा का चन्द्रमा शोभित होता है वैसे ही जनमत रूपी गगन में गुणों की मणिमाला से वेष्टित मुनीन्द्र रूपी चन्द्रमा शोभा पाता है।
चक्कहरराम केसवसुरवर जिणगणहराइसोक्खाई । चारणमुणिरिद्धीओ विसुद्धभावा णरा पत्ता ॥ ३३१॥
(पुरा काल में ) विशुद्ध भाव वाले ऐसे अनेक नर मुनि हो चुके हैं जिन्होंने चक्रधर राम, केशव, सुरवर, जिनवर, गणधर, चारण मुनि आदि की ऋद्धियों को प्राप्त किया है।
सिवमजरामरलिंगमणोवममुत्तमं परमविमलतुलं ।
पत्ता वरसिद्धिसुहं जिणभावणभाविया जीवा ॥ ३३२ ॥ जिनभावना से भावित जीव ऐसी श्रेष्ठ सिद्धि अर्थात् मोक्ष का सुख प्राप्त करते हैं जो कल्याणकारी, अनुपम, उत्तम, श्रेष्ठ, निर्मल और अतुल्य है और अजरता, अमरता जिसकी पहचान है।
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