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परदव्वरओ बज्झदि विरदो मुच्चेदि विविहकम्मेहिं । एसो जिउवदेसो समासदो बंधमुक्खस्स । ३४८ ॥
बन्ध और मोक्ष के बारे में संक्षेप में जिनेन्द्र भगवान् ने यही उपदेश दिया है कि जो पर - द्रव्य में रत रहता है वह अनेक प्रकार के कर्मों से बँधता है और जो उससे विरत होता है वह उनसे छूट जाता है।
सद्दव्वरदो सवणो सम्माइट्ठी हवे नियमेण । सम्मत्तपरिणदो उण खवेइ दुट्ठट्ठकम्माई ॥
३४६ ॥
जो मुनि स्व- द्रव्य अर्थात् अपनी आत्मा में तल्लीन रहता है वह अनिवार्यतः सम्यग्दृष्टि है । सम्यक्त्व से सम्पन्न होने के कारण वह आठ दुष्ट कर्मों का क्षय करने में समर्थ होता है।
जो पुण परदव्वरओ मिच्छादिट्ठी हवेइ सो साहू | मिच्छत्तपरिणदो पुण बज्झदि दुट्ठट्ठकम्मेहिं ॥ ३५० ॥
इसके विपरीत जो मुनि पर-द्रव्य में तल्लीन रहता है वह मिथ्यादृष्टि है। मिथ्यात्व के कारण वह आठ दुष्ट कर्मों से बँधता है।
परदव्वादो दुग्गई सद्दव्वादो हु सुग्गई होदि ।
इय णाऊण सदव्वे कुणह रदि विरद इयरम्मि || ३५१ ॥ पर- द्रव्य से दुर्गति और स्व- द्रव्य से स्पष्टतः सुगति मिलती है। यह जानकर स्वद्रव्य से राग और पर- द्रव्य ( देह आदि) से विराग करना चाहिए।
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