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आदसहावादण्णं सच्चिताचितमिस्सियं हवदि ।
तं परदव्वं भणियं अवितत्थं सव्वदरिसीहिं ।। ३५२॥ सर्वदर्शी जिनेन्द्र भगवान् ने इस सत्य को प्रकट किया है कि आत्म स्वभाव से इतर जो भी चेतन (पत्नी, पुत्र आदि), अचेतन (धन, धान्य आदि) और मिश्रित (वस्त्राभूषण सहित स्त्री आदि) पदार्थ हैं वे सब पर-द्रव्य हैं।
दुट्टट्ठकम्मरहियं अणोवमं णाणविग्गहं णिच्चं ।
सुद्धं जिणेहिं कहियं अप्पाणं हवदि सद्दव्वं ॥ ३५३ ॥ ज्ञानावरणादि आठ दुष्ट कर्मों से रहित ज्ञानशरीर, अनुपम, अविनाशी और निर्मल आत्मा को ही जिनेन्द्र भगवान् स्व-द्रव्य कहते हैं।
जे झायंति सदव्वं परदव्वपरम्मुहा दु सुचारिता ।
ते जिणवराण मग्गे अणुलग्गा लहहिं णिव्वाणं ॥ ३५४ ॥ निर्दोष चारित्र के धनी जो मुनि पर-द्रव्य से विमुख होते हैं और स्व-द्रव्य (आत्मा) के ध्यान में लीन रहते हैं वे तीर्थंकरों के मार्ग का अनुसरण करते हुए निर्वाण को प्राप्त करते हैं।
जिणवरमएण जोदि झाणे झाएइ सुद्धभप्पाणं ।
जेण लहदि णिव्वाणं ण लहदि किं तेण सुरलोयं ॥ ३५५॥ जिस योगी को जिनेन्द्र भगवान् के मतानुसार शुद्ध आत्मा के ध्यान में लीन रहने से निर्वाण की प्राप्ति होती है, क्या उसे स्वर्ग की प्राप्ति नहीं होगी?