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तिहुवणमहिया सिद्धा सुद्धा णिरंजणा णिच्चा । दिंतु वरभावसुद्धि दंसण णाणे चरित्ते य ॥ ३३३ ॥ आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि हे सिद्ध भगवान् आप तीन लोक में पूज्य, शुद्ध, निरंजन और नित्य हैं। प्रार्थना है कि मुझे दर्शन, ज्ञान, चारित्र में श्रेष्ठ भावशुद्धि प्रदान करें।
किं जंपिएण बहुणा अट्ठो धम्मो य काममोक्खो य । अण्णे वि य वावारा भावम्मि परिट्ठिया सव्वे ॥ ३३४॥ आचार्य आगे कहते हैं, बहुत कहने से क्या ? धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, तथा और भी व्यापार हैं वे सब शुद्ध भाव में अवस्थित हैं । अर्थात् शुद्ध भाव में तमाम सिद्धियों
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का वास है ।
इय भावपाहुडमिणं सव्वंबुद्धेहि देसियं सम्मं ।
जो पढइ सुदि भावदि सो पावइ अविचलं ठाणं ॥ ३३५ ॥ इस प्रकार सर्वज्ञ देव ने इस भावपाहुड का भली प्रकार प्रतिपादन किया है। जो इसे पढ़ता, सुनता और इसका चिन्तन करता है उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है।
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